हरि जी म्हारी सुणज्यो बैग पुकार (भजन) - HARI JI MHARI SUNJYO BAIG PUKAR

  (29) भजन हरि जी म्हारी सुणज्यो बैग पुकार । जुगां–जुगां से आप प्रगटया , जग के सिरजनहार ।।टेर।। भक्त उबारण ताँई लीना , थे नृसिंह अवतार । खंभ फाड़ प्रहलाद उबारया , हिरणाकुश ने मार ।।1।। हरिश्चन्द्र सतवादी तारया , लिया वचन ने धार । बेच दिया अपना सुत नारी , बिक गया बिच बाजार ।।2।। मीरां बाई को जहर पचाया , हाँथा लिया उबार । नानी बाई को भात भरया थे , जाण्यो सब संसार ।।3।। मैं भी आज शरण में आयो , लियो चरण आधार । ‘ अशोकराम ’  की अरजी सुणज्यो , देवो दुखड़ा टार ।।4।।

परम ज्ञान प्रकाश WRITING

ग्रंथ का नाम – परम ज्ञान प्रकाश
ग्रंथ रचयिता – श्री अशोकराम जी महाराज
आश्रम – शिवाड़ , (जिला – सवाई माधोपुर , राजस्थान )
 निरंजनी सम्प्रदाय
महापुरूषों के नाम स्थान                        आश्रम
1.  सन्त श्री हरिपुरूषजी महाराज  ( डीडवाना – नागौर )
2.  सन्त श्री जसीरामजी महाराज  ( बबाइचा – अजमेर )
3.  सन्त श्री हरलालरामजी महाराज  ( अरांई – किशनगढ़ )
4.  सन्त श्री दुर्गारामजी महाराज  ( मालपुरा – टोंक )
5.  सन्त श्री ज्ञानस्वरूपजी महाराज  ( खिड़गी – टोंक )
6.  सन्त श्री अशोकरामजी महाराज  ( शिवाड़ – सवाई माधोपुर )












सत्य शब्द सार

सन्त आये द्वार तो , सम्मान करके देख ।
गुरूदेव के चरणों में सदा , ध्यान करके देख ।।
चरण धोई अमृत का , तू पान करके देख ।
तन , मन , धन अर्पण , प्राण करके देख ।।
माँग तू सतसंग , आतम ज्ञान करके देख ।
सद्ग्रंथ यही सीख देवे , जान करके देख ।।
तिरना है भंवर जाल से , वचन मान करके देख ।
सतसंग रूपी सिंधु में , स्नान करके देख ।।
पाना है अगर स्वर्ग तो , धन दान करके देख ।
भोगना है अगर नर्क तो , अभिमान करके देख ।।
चाहता है मोक्ष तो , ब्रह्म ज्ञान करके देख ।
अशोकराम गुरू हरि का , गुण–गान करके देख ।।
** हरि ओSम तत् सत् **



दो शब्द
प्रिय सज्जनों ,
    मनुष्य शरीर बड़ी मुश्किल से कई जन्मों के पुन्यों के प्रताप के बाद मिल पाता है और यह मिलने के बाद इसे अच्छे कर्म करके हमेशा के लिए सुन्दर बना लेवे , ताकि शरीर छोड़ने के बाद भी आने वाली पीढ़ियाँ इस शरीर के नाम का गुणगान इज्जत से करती रहें । ये शरीर कोई कपड़े की भाँति न समझें कि खरीद लिया और पहन लिया और फैंक दिया , ये तो (मनुष्य शरीर) केवल एक बार ही मिलता है इसलिए ऐसी करणी करो कि अपने परमानन्द निज स्वरूप (सतचित्त आनन्द) की प्राप्ति हो सके और जन्म – मरण के बन्धन से मुक्त हो सके ।
      इस बन्धन से मुक्त होने का एक ही तरीका व साधन है आत्म – ज्ञान , (ब्रह्मज्ञान) और ये केवल गुरू भक्ति से ही मिल पाता है । गुरूदेव की शरण में जाने के बाद ही , भक्ति का दान मिलता है और भक्ति से शुद्ध स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति होती है , संसार में जितने भी संत हुए है । सभी ने यही मार्ग अपनाया और सहज ही भव सागर से पार हो गये , इसमें (भक्ति) में , जाँति – पाँति , धर्म – सम्प्रदाय , ऊँच – नीच , वर्ण – भेद नहीं होता है । ये सभी के लिए है इसे कोई भी अपना सकता है । इसको छोटा – बड़ा नर – नारी , गृहस्थ – सन्यासी सभी अपना सकते है – क्योंकि परमात्मा सर्वत्र है –                     
 परम संत रैदासजी ने कहा है कि –
जाँत पाँत पूछे नही कोई ।
हरि को भजे सो हरि का होई ।।
इस कारण इस ग्रन्थ को हमने समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए परमात्मा गुरूदेव की असीम कृपा से तैयार किया है , ताकि सभी वर्ण , सम्प्रदाय , जाति , धर्मों के जिज्ञासु जन इसे पढ़कर परमार्थ से जुड़ें और ब्रह्म ज्ञान को इस जग में फैलाते रहे । मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है ।




श्री हरि पुरूष परब्रह्मनमो, जसीराम जगदीश ।
हरलालरामजी प्रकट हुए , दुर्गारामजीईश ।।
दुर्गारामजीईश , हुए है बड़े ब्रह्मज्ञानी ।
ज्ञानस्वरूपजी दे गये , मुझको अमर निशानी ।।
अशोकरामशरणो लियो , पूरण बिश्वाबीस ।
श्री हरि पुरूष परब्रह्म नमो , जसीराम जगदीश ।।






ब्रह्मवेत्ता सतगुरूदेव स्वामी श्री ज्ञानस्वरूप जी महाराज का
संक्षिप्त परिचय

खिड़गी मण्डाल्या बीच में , बहता गंगा नीर ।
ज्ञानस्वरूपगुरूदेवजी , खड़े है गंगा तीर ।।
खड़े है गंगा तीर , जहाज इक लेकर भारी ।
पल में पार लगावसी , जो बैठे नर नारी ।।
अशोकराम भी बैठया , उतरया पैली तीर ।
खिड़गी मण्डाल्या बीच में , बहता गंगा नीर ।




श्री अशोकराम जी महाराज का संक्षिप्त परिचय


जन्म 14 जून , 1971
पिता है जगदीश जी , माता कस्तूरी जाण ।
तीन बन्धु गण मैरे , गोत्तम , पूरण , भगवान ।।
त्रिया है देवी सन्तरा , दो पुत्र इक पुत्री सन्तान ।
निराला मंम वंश है , चौपदार जाति मान ।।
ज्ञानस्वरूप गुरूदेवजी , मिल गये सन्त महान ।
अशोकराम शरणो लियो , जन्म है शिवाड़ ग्राम ।।



ग्राम परिचय

शिवाड़ नगर में शिव बसे , घुश्मेश्वर है धाम ।
द्वादश ज्योतिर्लिंग में , यांको नाम महान ।।
यांको नाम महान , दर्शन करो नर नारी ।
सर्व घटों में–चमक रही , शिव की ज्योति उजियारी ।।
सत्यम शिवम सुन्दरम , पूरण ब्रह्म पिछाण ।
अशोकरामतुम देखलो , शिव है आतम राम ।।



गुरू चालिसा

गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णो, गुरूर्देवो महेश्वरः ।
गुरूर्साक्षात परब्रह्म तस्मैश्री गुरूवे नमः ।।
ध्यान मूलं गुरूमूर्ति, पूजा मूलं गुरूर्पदम ।
मंत्र मूलं गुरूर्वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरूः कृपा ।।
जय जय सतगुरू देव निरंजन । 
करो सदा सबका दुःख भन्जन ।।1।।
गुरू सम तीन लोक में नांही ।
करत शिष्य पर कृपा सदाहीं ।।2।।
गुरू बिन मोक्ष कभी न होवे ।
जीव हमेशा दुःख पा रोवे ।।3।।
त्रिगुण रूप बैठे जग मांही ।
जड़ चेतन में आप समाही ।।4।।
मेटो बन्धन करो प्रकाशा ।
ब्रह्म ज्ञान की करते आशा ।।5।।
सुमरण करूं आप समझाओ ।
मेरे घट में राम लिखाओ ।।6।।
गुरू का सुमरण जो नर करता ।
फिर चौरासी दुःख नहीं भरता ।।7।।
गुरू  का  ध्यान  करे जो  कोई ।
बहुरि जन्म मिलता नहीं सोई ।।8।।
गुरू चरण बहे अमृत गंगा ।
पीकर होई सर्वजन चंगा ।।9।।
वेद शास्त्र सब करत बखाना ।
सतगुरू है पूरण भगवाना ।।10।।
सूरज सम गुरू देव पधारे ।
रजनी तम मेटे अंधियारे ।।11।।
लौहा रूप शिष्य को जानो ।
सतगुरू पारस सम पहिचानो ।।12।।
लौहा भाव मिटावे पल में ।
कंचन पलट करत है छिन में ।।13।।
गुरू बिन तीरथ जो नर जावे ।
वाँको फल कबहुँ नही पावे ।।14।।
गुरू सम देव और नही दूजा ।
आरती करूँ सदा मैं पूजा ।।15।।
गीता ज्ञान बड़ा है भाई ।
अर्जुन के गुरू बने कन्हाई ।।16।।
सीख मिली अर्जुन को भारी ।
सारी दुविधा तुरत बिसारी ।।17।।
ज्ञान कर्म सत योग सिखावे ।
जनम जनम का पाप नशावे ।।18।।
गुरू से मर्म धर्म सब जानो ।
दया धर्म का मूल पिछानो ।।19।।
सतगुरू सत का पाठ पढ़ावे ।
केवल मोक्ष परम पद पावे ।।20।।
गुरू की सतसंग करो हमेशा ।
नाशै तिमिर व मिटे कलैशा ।।21।।
सोहम ओSम राम निज नामा ।
ज्ञानी योगी भक्त समाना ।।22।।
ब्रह्म निष्ठ श्रोतिय गुरू जानो ।
वांको ही सतगुरू पहिचानो ।।23।।
गुरू की सेवा ज्ञानी पावे ।
गुरू सेवा बड़ भागी जावे ।।24।।
गुरू सेवा काटे चौरासी ।
आवागमन का फन्द मिटासी ।।25।।
योग जाप तीरथ कर दाना ।
गुरू सेवा बिन निरफल जाना ।।26।।
सतगुरू है नित्य अवतारा।
देही धारण कर सबको तारा ।।27।।
आतम रूप नित्य कर जानो।
देही अनित्य सत्य कर मानो ।।28।।
अपने रूप में आप समाओ।
सतगुरू से झठ शिक्षा पावो ।।29।।
घट-घट करते गुरू प्रकाशा।
तीन लोक करता है आशा ।।30।।
निर्मोही  निर्बन्धन  सांई।
धरियो शीष पर हाथ गुंसाई ।।31।।
अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता।
नित चरणन में शीष नवाता ।।32।।
तन मन धन मैं भेंट चढ़ाऊ।
जनम धार नांही बिसराऊं ।।33।।
आतम रूप लिखावे दाता।
मुक्त होई भव में नहीं आता ।।34।।
त्रिगुण दोष मेटे त्रितापा।
जीवत मोक्ष हो आपहुँ आपा ।।35।।
इतनी जान प्रभु मैं आयो।
गुरू चरणन की धूल लगायो ।।36।।
सकल कामना मेटो सांसा।
दूजी नही मैरे कछु आशा ।।37।।
बादल बन अमृत बरसाओ।
सर्व शिष्यों की प्यास बुझाओ ।।38।।
ज्ञानस्वरूप मम इष्ट देवजी।
चरण कँवल की करू सेव जी ।।39।।
अशोकराम निज शरणै आया।
गुरू चालीसा पाठ सुनाया ।।40।।

दोहा अन्तः करण को शुद्ध कर , भजो गुरु जगदीश ।
पूरण करलो कामना , पाठ करो चालीस ।।


वन्दना के दोहे

नमो नमो गुरूदेवजी , नमो नमो भगवन्त ।
तन , मन , धन अर्पण करूं , करो दुःखो का अन्त ।।1।।
आदि पुरूष परमात्मा , तुम्हे नवांऊ शीश ।
जनम धार बिसरूं नही , वन्दन बिश्वाबीस ।।2।।
मुझ मुरख अज्ञान की , स्वामी करो सहाय ।
अन्तर परदा खोल दो , देवो ज्योति जलाय ।।3।।
मुझ अज्ञानी दास के , घट में करो प्रकाश ।
करो दया शरणै रखो , सदा चरण के पास ।।4।।
कोटि नाम है आपके , आपहि मायर बाप ।
पलक घड़ी बिसरूं नही , जपूं आपको जाप ।।5।।
मम आशा पूरी करो , सत्य गुरू भगवान ।
नाद पुत्र हूँ आपका , देवो ज्ञान का दान ।।6।।
ज्ञानस्वरूप गुरूदेव जी , तुमको प्रथम मनांऊ ।
अशोकराम ने तारल्यो , चरणन शीश चढांऊ ।।7।।



कुण्डलियाँ

श्री गणपति को सुमरि के , सतगुरू लेई मनाई ।
तीन लोक के है धणी , सहजां काज बनाई ।।
सहजां काज बनाई , खोलते भरम किवारी ।
घट में ज्योति जलाई , मेटते सब अंधियारी ।।
गणनायक गुरूदेव जी , सुमरूं घट के मांई ।
श्री गणपति को सुमरि के , सतगुरू लेई मनाई ।।



(1) गणपति वन्दना

भजो मन गणपति देव गुंसाई ।
गणपति सुमर सदा सुख पावे ,
क्लेश जहाँ थक जाई ।।टेर।।
अष्ट सिद्धि और नौ निधि भी , सदा चरण के मांई ।
ज्ञान बुद्धि का खुले भण्डारा , सकल पदारथ पाई ।।1।।
गण इन्द्रियों के ईश गणेशा , आवागमन में नांई ।
घट घट के है अन्तर्यामी , दृष्टि में नहीं आई ।।2।।
आपहूँ आप और नहीं दूजा , स्थिर रहे सदाई ।
तीन काल में रहे अखण्डित , ज्योति में ज्योति समाई ।।3।।
ज्ञानस्वरूपजी सतगुरू मिलिया , गणपति रूप लिखाई ।
अशोकराम निज मन्दिर मांही , गणपति देव मनाई ।।4।।



कुण्डलियाँ
दास आपके नाम का , नमन करूं हर बार ।
दर्शन देई उबारज्यो , कीज्यो भव जल पार ।।
कीज्यो भव जल पार , पलक घड़ी बिसरूं नांही ।
घट अंधियारा मेटज्यो , बैठो हिरदा मांही ।।
अशोकराम की विनति , सुणल्यो सिरजनहार ।
दास आपके नाम का , नमन करूं हर बार ।




 (2) भजन

गुरू दाता म्हाँपे साँची दया विचारो ।
दीन बन्धु है नाम आपको , भव जल आय उबारो ।।टेर।।
भक्ति न जाणू , भजन न जाणू , शरणू लियो तिहारो ।
आप बिना दूजो नहीं दर्शे , जग में तारण हारो ।।1।।
दास जाण निज दया करो जी , बेगा जनम सुधारो ।
झूंठा जग में जतन कर हारयो , थांको लियो सहारो ।।2।।
सत , चित्त , आनन्द रूप कहाओ , कर देवो उपकारो ।
अब तो महर करोजी दाता , बीत्यो जाई जमारो ।।3।।
ज्ञानस्वरूपजी सतगुरू म्हाँने , थांको ही आधारो ।
अशोकराम शरणों लियो , सहजां देवो किनारो ।।4।।





कुण्डलियाँ

कृपा करो गुरूदेव जी , अपणो सेवक जाण ।
आप बिना संसार में , मेटे कौण अज्ञान ।।
मेटे कौण अज्ञान , भूल मेरी कौण हटावे ।
आप बिना सूतां जीवां नें , दूजो कौण जगावे ।।
अशोकराम भूंलू नहीं , जब लग घट में प्राण ।
कृपा करो गुरूदेव जी , अपणो सेवक जाण ।।



(3) भजन


गुरां सा थाने सुमरूं बारम्बार ।
हिवड़ा माँही उठे हिलोला , बाज रही झणकार ।।टेर।।
लगन लगी है उर में भारी , वांको अन्त न पार ।
दर्शन देकर धीर बन्धावो , थे ही अधम उधार ।।1।।
दिन नही रैन चैन नहीं आवे , बेगा सुणो पुकार ।
व्याकुल हो गयो जग में दाता , दुःखी हुयो घबरार ।।2।।
कृपा करो निज दास जाण के , जाँऊ किसके द्वार ।
आप दया के सागर स्वामी , अरज करूं दुखियार ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी म्हारी , बैगा सुणो पुकार ।
अशोकराम चरणा को चाकर , भव से लेवो तार ।।4।।



(4) भजन

गुरू दाता म्हाने कष्ट सतावे भारी ।
आप वैद्य और मैं हूँ रोगी , सहाय करो जी हमारी ।।टेर।।
तन का रोग कबहुँ नही मिटता , देखो नबज हमारी ।
मन का रोग बड़ा है भारी , सुरति मेरी बिसारी ।।1।।
लाय संजीवनी औषध देवो , सुधि लेवो जी हमारी ।
ज्ञान कुण्डी में घोट घोट कर , दयो मुखड़ा में डारी ।।2।।
क्रिया कर्म की औषध लेतां , बढ़गी घणी बीमारी ।
मुक्ति रूपी जड़ी देवज्यो , तन मन होत सुखारी ।।3।।
ज्ञानस्वरूपजी सतगुरू दाता , सुणल्यो अरज हमारी ।
अशोकराम का भव दुःख मेटो , औषध का भण्डारी ।।4।।




 कुण्डलियाँ

आप गुरूजी समद है , मैं नदियाँ रो नीर ।
दौड़ लगाऊँ हर घड़ी , बन्धे न मन को धीर ।।
बन्धे न मन को धीर , जब लग आय समाऊं ।
विरह खुमारी चढ़ रही , निज प्रितम को पाऊं ।।
अशोकराम गुरू नाम पर , हो गया मस्त फकीर ।
आप गुरूजी समद है , मैं नदियाँ रो नीर ।।







(5) भजन

राँखज्यो सतगुरू म्हारी लाज ।
घणा देवरा ढोक लिया , सुधरयो नही मेरो काज ।।टेर।।
तीरथ बरत घणा ही कीना , नही पायो अन्दाज ।
उपमा थांकी मैं सुण आयो , छोड़ जगत ने आज ।।1।।
शरणै थांकी आयो स्वामी , बैंठू थांकी जहाज ।
हाथ पकड़ के आप चढ़ाओ , पार उतारो आज ।।2।।
ऋषि मुनि और देवी देवता , जाणे नही थांको राज ।
राजा , प्रजा सब चरणा में , थे सबका सिरताज ।।3।।
ज्ञानस्वरूप जी सतगुरू म्हारी , अरजी सुणो महाराज ।
अशोकराम पर कृपा करज्यो , सर्व गुणो के ताज ।।4।।







कुण्डलियाँ

करो बीज का नाश , उगण की आशा नांही ।
छूट जाई सब फन्द , आपका शरणां माँही ।।
शरणां माँही आपके , छूटे काया माया ।
म्हाँने भरोसो आपको , जम का लगे न दाया ।।
अशोकराम की विनती , राँखो चरणां के मांही ।
करो बीज का नाश , उगण की आशा नाँही ।। 




(6) भजन


सतगुरू थांको ही उपकारो ।
त्रिगुण ताप मिटाओ मेरा , घट में करो उजियारो ।।टेर।।
असंग जुंगा का सूता जीव ने , बेगा आय सम्भारो ।
आप दया के सागर स्वामी , मेटो सकल विकारो ।।1।।
गहरा जल की गहरी धारा , कैसे पाऊं किनारो ।
तार सको तो तारो दाता , हेलो सुणो हमारो ।।2।।
पाप , ताप , सन्ताप मेट दयो , सकल वासना जारो ।
सात द्वीप नौ खण्ड़ भवन में , थांको सकल पसारो ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी म्हाने , थांको ही आधारो ।
अशोकराम शरण सतगुरू की , जनम सुधारो म्हारो ।।4।।



कुण्डलियाँ

गुरू आप हो दीप सम , मैं हूँ तिमिर समान ।
करो तिमिर का नाश प्रभु , मेटो सकल अज्ञान ।।
मेटो सकल अज्ञान , ज्ञान का बाण लगाओ ।
तन मन ने घायल करो , अन्तर ज्योति जगाओ ।।
अशोकराम सब जगत के , तुम पूरण भगवान ।
गुरू आप हो दीप सम , मैं हूँ तिमिर समान ।।



(7) भजन

गुरू दाता म्हारी अरजी निभाओ जी ।।टेर।।
मैं तो पंछी फंसिया पिंजरे ,
म्हाने दीज्यो आई छुड़ाई ।।1।।
मैं तो मारगिया रा कांकरा ,
कोई लीज्यो हांथा उठाई ।।2।।
मैं तो टाबरिया गुरू आपरा ,
कोई लीज्यो गोद उठाई ।।3।।
जतन घणा ही कर हारया ,
कोई दीज्यो ज्ञान बताई ।।4।।
ज्ञानस्वरूप गुरूदेव जी ,
अशोकराम की करोजी सहाई ।।5।।




(8) गजल

तेरे नाम का आशिक बन , मैं सब कुछ लुटा चुका हूँ ।
मैं भुला न पाँऊ तुझको , गुरू तेरा हो चुका हूँ ।।टेर।।
जागी है ज्योति जब से , तेरे नाम की अन्तर में ।
प्रेमानन्द जब से छाया , कुर्बान हो चुका हूँ ।।1।।
दूजा न भावे कोई , इस जग में सिवा तेरे ।
टूटे ना डोर अब ये , मैं निश्चय कर चुका हूँ ।।2।।
निज प्रेम पाके तेरा , मंजिल मैं अपनी पाया ।
छोडूं ना अब दुबारा , पहले ही खो चुका हूँ ।।3।।
झूंठा है जग का रिश्ता , बन्धन से मुक्त हूँ मैं ।
अशोकरामइश्क तेरा , मैं सच्चा पा चुका हूँ ।।4।।



(9) भजन

मैं तो प्रीत गुरां संग पाली रे ।
कर सोलह सिणगार , आज मिलबा ने चाली रे ।।टेर।।
आज म्हारो भाग जाग्यो , दिन भलो उग आयो ।
सन्मुख जाय मिलूं सतगुरू से , विरह घणो सतायो ।।
अब मैं झांकू नही पिछाड़ी रे ..........।।1।।
शील ओढणी गुरू गम लहंगो , सत की अंगिया पहरी ।
अमरयो चुड़लो हांथा पहरयो , नाम की नथड़ी पहरी ।।
मैं तो ज्ञान को काजल घाली रे ..........।।2।।
शुभ सिन्दूर , चेतन की टींकी , आणन्दी अंगूठी पहरी ।
सोहं पायल बाज रही , सुमरण की बाली पहरी ।।
धीरज हार गला में भारी रे ..........।।3।।
रतनी चूंपा , सुमति नेवर , बाजू बन्ध भक्ति का ।
नेम धर्म की तगड़ी पहरी , मार्ग लिया मुक्ति का ।।
मैं तो आरती थाल सजाली रे ..........।।4।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी का मैं , सन्मुख दर्शन पांवा ।
अशोकराम शरण सतगुरू की , हरष हरष गुण गांवा ।।
स्वामी ज्ञान का भण्डारी रे ..........।।5।। 





(10) भजन


स्वामी सतगुरू दीन दयाल हो इष्ट हमारा ।
हो पूरण ब्रह्म अपार , नित्य अवतारा ।।टेर।।
गुरू आप हो दीप समान , करो उजियारा ।
मेरा मेटो संशय आई , हटाओ विकारा ।।1।।
गुरू आप हो निर्गुण रूप , धरे साकारा ,
हो सर्व गुणो की खान , खुला भण्डारा ।।2।।
देवा जनम मरण का रोग , मिटाओ सारा –
थाँकी महिमा अपरम्पार , करो छुटकारा ।।3।।
स्वामी ज्ञानस्वरूप महाराज , हो सिरजनहारा
करे अशोकराम अरदास , करो भवपारा ।।4।।






(11) भजन


गुरूदेव आपके चरणो में , हम हरदम शीश नवाते है ।
जिन पर कृपा सतगुरू की हो , वो ही नर मुक्ति पाते है ।।टेर।।
भाग्य पूरबला उदय हुआ , तब मानुष देही पाते है ।
ब्रह्म ज्ञान की आश लेई , हम सतगुरू शरणै आते है ।।1।।
आप बिना है सब जग झूंठा , सोहं रूप लिखाते है ।
जनम मरण की फाँसी को , झठ गुरूदेव कटवाते है ।।2।।
हम भूल गये थे सत मारग , उस पथ को बताते है ।
अब हाथ दया का शीश धरो , उपमा सुनकर हम आते है ।।3।।
गुरू ज्ञानस्वरूप जी इष्ट देव , पल भर में पार लगाते है ।
अशोकराम पर कृपा कर , जीवत ही मोक्ष कराते है ।।4।।






(12) भजन

सतगुरू आप बिना नहीं कोई जगत में , सांचा देव हमारा ।
कर कर जतन चहुँ दिश खोज्या , नहीं पायो छुटकारा ।।टेर।।
आप नही होता तो स्वामी , बिगड़या जाता जमारा ।
भूल मिटाई दास जाण के , मेट दिया अंधियारा ।।1।।
डूबत जीव उबारया दाता , भव से दिया किनारा ।
पाप , ताप , संताप मेटया , कर दीन्हा सुलझारा ।।2।।
सत्य ज्ञान का पाठ पढाया , मेटया सकल विकारा ।
करम भरम का सांसा मेटया , मेटया दुःख अपारा ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , हाँथा लिया उबारा ।
अशोकराम शरण सतगुरू की , सत्य चरण चित्त धारा ।।4।।




कुण्डलियाँ


अवतार लिया गुरूदेव जी , जीव उबारण तांई ।
ब्रह्म निष्ट , ब्रह्म श्रोतिय , सर्व जगत के सांई ।।
जीव से हंसा करे , शुद्ध स्वरूप लिखाई ।
जीवत ही मुक्ति करे , ऐसो ज्ञान बताई ।।
अशोकराम ऐसे गुरू , सत को दे परखाई ।
अवतार लिया गुरूदेव जी , जीव उबारण तांई ।।



(13) भजन

सतगुरू की कृपा से मेरा , दिल का धुलग्या दाग जी ।
काया धार जीवों के कारण , आया बण बैदाग जी ।।टेर।।
आतम ज्ञान कराया म्हाने , चढ़ आया बैराग जी ।
चेतन मूरत हिवड़े धारी , जाग्या है अनुराग जी ।।1।।
नित अवतारी परहित–कारी , जोई ज्ञान की आग जी ।
भस्म करया पांचो नागा ने , दिल से करया त्याग जी ।।2।।
दुर्गुण मेट सर्वगुण दीना , लागी निर्गुण लाग जी ।
रोम–रोम रग रग के मांही , उठगी अनहद राग जी ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , मेटया भवकी आगजी ।
अशोकराम चरण रज पाई , गुरू संग खेले फाग जी ।।4।।




(14) भजन

सूता ने आई जगाया रे , सांचा सतगुरू मेरा ।
जनम जनम से पड़यो कूप में , पायो कष्ट घणेरा ।।टेर।।
दया करी गुरूदेव हमारे , मेटया भरम अंधेरा ।
मिटगई रैण , हुआ उजियारा , हो गया भौर सवेरा ।।1।।
शब्दी बाण लगाया मेरे , पापी मन को घेरा ।
मेटया काल , जाल भव बन्धन , चौरासी का फैरा ।।2।।
सर्व कल्पना , भूल मिटाई , कर दीन्हा सुलझेरा ।
खबर पड़ी अपना प्रीतम की , निज घर माँही हैरा ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , जनम सुधारया मेरा ।
अशोकराम शरण सतगुरू की , दिया चरण में डेरा ।।4।।






कुण्डलियाँ

भटकत जीव उबारया , भव सागर के माँही ।
ऐसे सतगुरू आप है , दूजा दर्शे नांही ।।
दूजो दर्शे नांही , जगत में तारण हारा ।
 ऋषि–मुनि–गण–देवता , हो सबके आधारा ।।
अशोकरामगुरू चरण को , भूल नांही सदाहीं ।
भटकत जीव उबारया , भव सागर के माँही ।।





(15) भजन

मेरे सतगुरू है दातारी , जांवा चरण कँवल बलिहारी ।।टेर।।
मैं था बीच भँवर मझधारी , निज कर से लिया उबारी ।।1।।
म्हाने दे दिया जी सतसंगा , म्हारे बहे ज्ञान की गंगा ।।2।।
जो भी माँगा हाथ पसारा , दिया सकल पदारथ सारा ।।3।।
म्हारे मारया शब्द का गोला , अवगुण का कर दिया होळा ।।4।।
म्हारे शब्दी बाण लगाया , तन , मन , और प्राण बिंधाया ।।5।।
गुरू वचन लगा है भारी , म्हारी मिटगी दुविधा सारी ।।6।।
गुरू ज्ञानस्वरूप जी देवा , अशोकराम चरण की सेवा ।।7।।







कुण्डलियाँ

गुरू ज्ञान है ऊजला , याँकू उत्तम मान ।
कर हिरदा में धारणा , मिटे सकल अज्ञान ।।
मिटे सकल अज्ञान , धारले सत विश्वासा ।
मीरां जहर पचा गई , गुरू मिले रैदासा ।।
ज्ञानस्वरूप गुरूदेवजी , मिल गये सन्त महान ।
अशोकराम शरणै खड़ो , ये सांचा भगवान ।।






(16) भजन

सतगुरू पूरण ब्रह्म अपारा , सब देवों के ईश जी ।
सर्व जगत के है आधारा , करत ज्ञान बक्शीश जी ।।टेर।।
जनम सफल हो जाये तेरा , ऐसी देवे सीख जी ।
ब्रह्म ज्ञान का दीप जलावे , प्रेम की दे आशीष जी ।।1।।
मृग तृष्णा को मेटे पल में , मेटे सबकी प्यास जी ।
अमृत जल बरसाकर सबकी , पूरण करते आश जी ।।2।।
अमर पटटा हाथां में देकर , भव की मेटे त्रास जी ।
सत चित्त आनन्द रूप कहावे , मेटे यम की फाँस जी ।।3।।
ज्ञानस्वरूप जी सतगुरू म्हारा , किया भरम का नाश जी ।
अशोकराम पर कृपा कीन्हा , सदा चरण को दास जी ।।4।।






(17) भजन

भाग भला बण आया जी मेरा , सतगुरू आँगण आया ।
आतम पद का बोध कराया , पातक दूर हटाया ।।टेर।।
जुगां जुगां सूं सूता जीव ने , पल में आय चेताया ।
भरमी परदा तोड़ भगाया , साँचा शबद सुनाया ।।1।।
ज्ञान घटा लेकर के गरज्या , रोम रोम गरणाया ।
चेतन का चमका चमकावे , अमृत जल बरसाया ।।2।।
अमृत पीकर चेतन होग्या , जागृत सदा कराया ।
निज स्वरूप दरशाया मेरा , दुतिया भाव मिटाया ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी आया , भव बन्धन छुड़वाया ।
अशोकराम निज रूप परख के , पूरण परिचय पाया ।।4।।




(18) भजन

आजा गुरू की शरण , तेरा मिटेगा भरम ।
भक्ति , ज्ञान , योग करले , हरि दर्शन ।।टेर।।
तन मिला है मुश्किलों से , जानले मरम ।
गुरूजी बतायेंगे , करम व धरम ।।1।।
गुरूजी के अर्पण करदे , तन , मन , धन ।
लोक परलोक सुधरे , छोड़ दे शरम ।।2।।
सतचित्त आनन्द रूप का , करले भजन ।
भेंज देंगे तुझको बन्दे , असली वतन ।।3।।
ईष्ट देव मानले तू , सुधरे जनम ।
अशोकराम छोड़ना मत , पकड़ले चरण ।।4।।






(19) भजन

कीन्हा अमर उजाला सतगुरू कीन्हा अमर उजाला रे ।
घोर अंधेरा भस्म कराया , जागी ज्ञान की ज्वाला रे ।।टेर।।
चेतन चमक रहा है निशदिन , इसका खेल निराला रे ।
सबसे न्यारा , सबका प्यारा , करे सदा उजियारा रे ।।1।।
अनुभव भाण उगाया घट में , होवे तेज विशाला रे ।
अटल प्रकाशा तम का नाशा , गुरू करया तत्काला रे ।।2।।
चौरासी की बन्घन काटया , भर्म खण्ड कर डाला रे ।
जनम जनम का मेट अंधेरा , खोल्या घट का ताला रे ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , हमको आई सम्भाला रे ।
अशोकराम अमर घर पाया , मिलग्या दीन दयाला रे  ।।4।।






(20) भजन

गुरूजी बिना कैसे होवेगो भवपार ।
सत्य ज्ञान बिन फिरे भटकतो , कोई न लागे लार ।।टेर।।
यो जग है मतलब को साथी , दो दिन को लगियार ।
कोई ना पूंछे , आकर प्यारा , सुख दुःख का समचार ।।1।।
बचपन बीत जवानी आई , मृग तृष्णा है लार ।
वृद्ध हुयो शक्ति घटगी रे , दुःखी हुयो घबरार ।।2।।
चेत सके तो चेत ले प्राणी , भजले नित अवतार ।
अन्त समय कोई नहीं साथी , देवे जमड़ा मार ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी आया , समझो सार असार ।
अशोकराम कहे रे साधो , नहीं डूबे मझधार ।।4।।





(21) भजन

गुरूदेव रखवारा सबका गुरूदेव रखवारा ।
सब देवो के देव निरंजन , सतगुरू देव हमारा ।।टेर।।
देव , ऋषि , मानव , गण हारे , लेते सदा सहारा ।
ब्रह्मा , विष्णु और महेशा , सतगुरू चरण निहारा ।।1।।
 सत्य लोक के गुरूधणी है , रच दीन्हा संसारा ।
इनका खेल खरा कुदरत में , करते सकल पसारा ।।2।।
वेद शास्त्र , पुराण अठारहा , कथ कथ पाना हारा ।
माया दासी सदा चरण में , सेवा करे इकसारा ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मेरे , प्राणों के आधारा ।
अशोकराम शरण सतगुरू की , पावे मोक्ष किनारा ।।4।।





(22) भजन

गुरूजी बिना भव दुःख कौण मिटावे ।
चाहे करणी करो विधि नाना , उलझ उलझ मर जावे ।।टेर।।
गहरी नदियाँ , बहती धारा , सब जग बहता जावे ।
भारी भारी मगर माछला , खा बा तांइ आवे ।।1।।
महर करी मेरे दीन दयालु , सबने मार भगावे ।
हाथ बढ़ाकर भुजा पकड़या , खींच किनारे लावे ।।2।।
आवागमन का मारग लम्बा , पल में ही छुड़वावे ।
कष्ट अपार मेटकर सारा , परमानन्द लिखावे ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , सारा फन्द मिटावे ।
अशोकराम शरण सतगुरू की , बणत बणत बण जावे ।।4।।




(23) भजन

कर दर्शन सुख पाले मनवा , गुरूदेव घर आया है
सत्य गुरू की शरण बिना , तू बिर्था जन्म गंवाया है ।।टेर।।
बीता अवसर फैर न आवे , झूंठा क्यूं भरमाया है ।
झूंठे जग की मोह माया ने , तुझको सदा दुःखाया है ।।1।।
गुरूदेव को पकड़ आसरो , तीन लोक जश छाया है ।
जनम–मरण का बन्धन काटे , भाग तेरा बण आया है ।।2।।
मानुष जनम अमोलक हीरा , कोई बिरला ही पाया है ।
हरि मिलन की इच्छा करलें , क्यूं झूंठा उलझाया है ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , सारा भरम नशाया है ।
अशोकराम आतम धन पाले , झूंठी तेरी काया है ।।4।।




(24) भजन

गुरां सा थाँकी महिमा अपरम्पार ।
वेद शास्त्र सब करत बखाना , हो नित्य अवतार ।।टेर।।
निर्गुण रूप सदा अविनाशी , काया धरे साकार ।
जुगां जुगां से आप प्रगटया , करने को उद्धार ।।1।।
बण उपकारी इन्द्र समाना , ल्याया बरखा लार ।
ज्ञान अमृत का मेह बरसाया , निपज्या सुख अपार ।।2।।
जो कोई घट रूपी प्याला में , पीवे यांकू डार ।
 होई अमर कबहूँ नही मरता , जम जावे घबरार ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , सबका सिरजनहार ।
अशोकराम गुरां की महिमा , गावां बारम्बार ।।4।।




(25) भजन

साधो भाई अमृत प्याला पीज्यो ।
नित सतसंग गुरां सा की कीज्यो , सत वचना में रहीज्यो ।।टेर।।
सतसंग रूपी कामधेनु से , सारा काज बणाज्यो ।
अर्थ , धर्म , और काम , मोक्ष का , सकल पदारथ पाज्यो ।।1।।
कल्प वृक्ष की छाया बैठो , त्रिगुण ताप मिटाज्यो ।
सुख ऊपजैला नितके भारी , निर्भय मौज मनाज्यो ।।2।।
सतसंग गंगा मांही जाकर , सारो मैल छुडाज्यो ।
दशूं दोष काया का छूटे , कंचन होकर आज्यो ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी सागे , अमर पटटा लिखवाज्यो ।
अशोकराम अमृत का प्याला , सन्ता में बटवाज्यो ।।4।। 




(26) भजन

साधो भाई सतसंग है सुख धारा ।
बिन सतसंग भरम नही मिटता , पावे दुःख अपारा ।।टेर।।
सतसंग का महातम है भारी , श्रुत्ति सन्त विचारा ।
वेद शास्त्र सब करत बखाना , कथ हारे अवतारा ।।1।।
जनम जनम का पाप कटे है , मिटता सर्व विकारा ।
जो कोई डुबकी गोत लगावे , लेवे मोक्ष किनारा ।।2।।
सतसंग जहाज समान कहावे , करती भवजल पारा ।
सतगुरू केवट बनकर बैठ्या , देवे सहज किनारा ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , सच्चा दिया इशारा ।
अशोकराम सतसंग है सांची , जो डूबे सोई तारा ।।4।।




(27) भजन

कहे वेद सन्त और गीता पुराण अठारहा ।
सतसंग ने चित्त में धार , होई भवपारा ।।टेर।।
सतसंग गंगा में , बह रही अमृत धारा ।
साधु सन्त करे स्नान , मुनिजन सारा ।।1।।
मीरां बाई पचाई जहर , लिया आधारा ।
ज्याने गुरू मिल्या रैदास , गावे संसारा ।।2।।
सतसंग से वाल्मिक , रामायण रच डारा ।
करी सदा राम संग डोर , हिया में धारा ।।3।।
गुरू ज्ञानस्वरूप जी मिल गये सिरजन हारा ।
कर अशोकराम सतसंग से जनम सुधारा ।।4।।





(28) भजन

यहाँ हरि मिलन की जहाज खड़ी , और बहे ज्ञान की धारा ।
ये सतसंग है आधारा ।।टेर।।
जो बैठे आकर सतसंग में , वो सहज ही लेत किनारा ।
यहाँ ऋषि मुनि सन्यासी सारे , आकर लेत सहारा ।।1।।
ये सबकी तारण हार जगत में , देती मोक्ष किनारा ।
इस जहाज समा कोई दर्शे नाही , तिर गये सन्त हजारा ।।2।।
सतगुरू केवट जहाज चलावे , नही डूबे मझधारा ।
कटता है कर्म बन्धन सारा , और मिटता संकट सारा ।।3।।
सतसंग का महातम है भारी , करोड़ों ही सन्त उबारा ।
सतसंग महिमा कही न जावे , थक गये सब अवतारा ।।4।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी देवा , सच्चा ईष्ट हमारा ।
अशोकराम की बाँह पकड़कर , डूबत लिया उबारा ।।5।।




कुण्डलियाँ

सतसंग में मिलता सदा , सत्य धर्म व ज्ञान ।
कुसंगत सब जावसी , मिले हरि का ध्यान ।।
मिले हरि का ध्यान , उर परमानन्द छावे ।
सतसंग के प्रताप से , काग हँस बण जावे ।।
अशोकराम सतसंग में , सदा मिले विश्राम ।
सतसंग में मिलता सदा , सत्य धर्म व ज्ञान ।।




(29) भजन

हरि जी म्हारी सुणज्यो बैग पुकार ।
जुगां–जुगां से आप प्रगटया , जग के सिरजनहार ।।टेर।।
भक्त उबारण ताँई लीना , थे नृसिंह अवतार ।
खंभ फाड़ प्रहलाद उबारया , हिरणाकुश ने मार ।।1।।
हरिश्चन्द्र सतवादी तारया , लिया वचन ने धार ।
बेच दिया अपना सुत नारी , बिक गया बिच बाजार ।।2।।
मीरां बाई को जहर पचाया , हाँथा लिया उबार ।
नानी बाई को भात भरया थे , जाण्यो सब संसार ।।3।।
मैं भी आज शरण में आयो , लियो चरण आधार ।
अशोकराम की अरजी सुणज्यो , देवो दुखड़ा टार ।।4।।




(30) भजन

असंग जुगां रा हरि आप धणी , अरजी सुणो जी हमारी ।
भव सागर गहरा घणा , डर लागे अति भारी ।।टेर।।
सतजुग में हरिचन्द्र तारया , तारी सरियादे कुम्हारी ।
ध्रुव ने अटल पद राज दिया , भक्त प्रहलाद ने उबारी ।।1।।
त्रेता जुगां मे शबरी तारिया , नवधा भक्ति जो धारी ।
गिद्ध सरीखा ने उबारया , तारी अहिल्या सी नारी ।।2।।
द्वापर में द्रोपदी ने तारिया , बढाई वांकी थे सारी ।
कुन्ती विदुर घर जीमया , थारी लीला है न्यारी ।।3।।
कलयुग में भक्ता रो पार नही , कोई लाख है हजारी ।
मीरां , कबीरा , रविदास नें , हरि हाथां ही उबारी ।।4।।
ज्ञानस्वरूप गुरूदेव जी , विनती सुणोजी हमारी ।
अशोकराम निजदास ने , प्रभु आश है तिहारी ।।5।।





(31) भजन

भक्ति तो भाई साधे सन्त पियारा ।
सतगुरू वचन धार हिरदा में , सांचा लिया सहारा ।।टेर।।
रंग बाना काया पर धारया , गुरू शब्द नही धारा ।
वां नुंगरा ने शरम न आवे , झूंठा लिया जमारा ।।1।।
मगना हाथी जल में न्हावे , सूंड से करे फुंवारा ।
बाहर आकर धूल उड़ावे , बिगड्या जाई शरीरा ।।2।।
डाळां उड़ उड़ बैठे कागा , भूण्डा शब्द उचारा ।
बिष्ठा ऊपर बैठे जाकर , बांधे पाप का भारा ।।3।।
ज्ञानस्वरूपजी समरथ मिलिया , सांचा दिया इशारा ।
अशोकराम कहे रे साधो , गुरूभक्ति आधारा ।।4।।




(32) भजन

साधो भाई भगति हरिजन पावे ।
भगति कर कर पार उतरग्या , मूरख गोत्या खावे ।।टेर।।
भगति रंग कबहूँ न उतरे , दूर जगत से जावे ।
ज्यूं ज्यूं रंग गहरा हो जावे , परमानन्द छा जावे ।।1।।
नीच से ऊँच होवे भगति में , उत्तम रंग पलटावें ।
पारस संग लोहा की जाति , झठ कंचन बण जावे ।।2।।
हरि मिलन की आशा ज्यांके , प्रेम का बादल छावे ।
हिवड़ा में लहरां उठ आई , कर दर्शन सुख पावे ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी म्हाने , साँची सैन बतावे ।
अशोकराम भगति करबा सूं , जनम मरण मिट जावे ।।4।।

दोहा – अष्ट सिद्धि व नौ निधि , भक्ति के समनाहि ।
भक्ति पार लगावसी , बाकी सब उलझाहि ।।




(33) भजन

भक्ति तो भाई  सूरा के मन भावे ।
सूरा रण में शीश कटावे , कायर पाछा जावे ।।टेर।।
सत का सैल , ढाल सुमरण की , शबद की चोट लगावे ।
भगति भौम पर करे लड़ाई , पग पाछा नही ल्यावे ।।1।।
काम , क्रोध ने मार हटावे , मन घोड़े चढ़ जावे ।
ब्रह्म ज्ञान का गोला फैंके , चेतन बाण लगावे ।।2।।
जग की प्रीत हटावे दूरा , सच्चा युद्ध मचावे ।
पाँच पच्चीस बेरयाँ ने पछाड़े , रहम जरा नही आवें ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी म्हाने , युद्ध की कला बतावे ।
अशोकराम अब धोखा नांही , जीवत ही मर जावे ।।4।।




कुण्डलियाँ

फकीरों के देश में , कोई न दीखे अमीर ।
हीरा सभी के पास में , पर रहे सदा फकीर ।।
रहे सदा फकीर , अमीरी सूझे नांही ।
करत सदा प्रकाश , जगत को दीखे नांही ।।
अशोकराम हीरा लिया , लेत ही बण्या फकीर ।
फकीरो के देश में , कोई न दीखे अमीर ।।





(34) भजन

फकीरी कोई साधे सच्चा फकीर ।
भेग लिया सूं भरम नही भागे , बन्धे न मन को धीर ।।टेर।।
फकीरी धारण जो नर करया , हो गया बज्र शरीर ।
मरने की गम वांकू नाही , चाहे चलाओ तीर ।।1।।
सिंह जिया झूझे भारत में , गरज करे गम्भीर ।
सियार भेड़िया डरकर भाग्या , व्याकुल हुआ शरीर ।।2।।
कूद पड़े सागर के माँही ,गहरा ज्यांका नीर ।
बाहर आ हंसा में बैठे , ले मोती आखिर ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , सन्त बड़ा महावीर ।
अशोकराम फकीरी पाई , तोड़ी जग जंजीर ।।4।।




(35) भजन

फकीरी साधो नही नुंगरा को काम ।
साधेला कोई गुरूमुख ज्ञानी , पद पावे निर्वाण ।।टेर।।
दया , धर्म , सन्तोष धारकर , मेटे खींचाताण ।
लगन रांख सतगुरू चरणां में , तोड़या जम की डाण ।।1।।
अमर कटोरा हाँथा रांखे , सुरति ब्रह्म मिलाण ।
लागी डोरी टूटे नांही , लिया अमर घर जाण ।।2।।
निर्भय धार वचन सतगुरू का , तज दिया सब अभिमान ।
निज आतम स्वरूप परख के , कर देख्या प्रमाण ।।3।।
राम मिलण का पटटा लिखाया , सतगुरू देव महान ।
अशोकराम निरंजनी गावे , सुंगरा करे पिछाण ।।4।। 





(36) भजन

साधो भाई सतगुरू सैन लिखाई ।
जनम मरण होवे नही मेरा , तीन काल के मांई ।।टेर।।
ऐसी सैन बताई दाता , आपहुँ आप समाई ।
दुतिया भाव मेटकर सारा , एको ब्रह्म बताई ।।1।।
अमर लोक में मेरा बासा , अब कुछ धोखा नांई ।
हद बेहद के आगे रहता , अनहद नाद बजाई ।।2।।
अजर अमर अविनाशी कहिये , आवागमन में नांई ।
छूट गया चौरासी चक्कर , ऐसी जुगति पाई ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , मेटया जग की झांई ।
अशोकराम निज रूप परख के , जीवत मुक्ति पाई ।।4।।








(37) भजन


अब मोहे जाण पड़ी प्रीतम की ।
सतगुरू सैन लिखाई मुझको , पटकी भींत भरम की ।।टेर।।
महर करी गुरूदेव दयालु , मन की त्रासा मिटगी ।
ब्रह्म ज्ञान का हुआ उजाळा , कलह कल्पना छटकी ।।1।।
पाँच तत्व और तीन गुणां की , झूंठी डोरी कटगी ।
सांची डोर बंधाया सतगुरू , खबर पड़ी अनहद की ।।2।।
प्रेम हुआ सांचा प्रीतम से , सारी दुविधा कटगी ।
जनम मरण होवे नही मेरा , झठ चौरासी मिटगी ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरू सैन बताई , सुरता म्हारी डटगी ।
अशोकराम प्रीतम संग खुलगी , रंग महला की खिड़की ।।4।।





(38) भजन

साधो भाई मुझसे दूर उपाधि ।
सतगुरू सैन बिना नही मिटती , सब जीवों की व्याधी ।।टेर।।
जोगी जंगम नही सेवड़ा , नही हूँ मैं सन्यासी ।
नही मैं बालक नही मैं बूढा , छोड़या वाद विवादी ।।1।।
नही त्रिगुण मैं नही पंच भूता , नाही अन्त नही आदी ।
ईश्वर , जीव , कारण व माया , सतगुरू भेद हटादी ।।2।।
हूँ निष्कामी सदा अनामी , वेद में साख भरादी ।
रोम रोम घट घट में व्यापक , पूरण ब्रह्म अनादी ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी म्हाने , सांची सैन बतादी ।
अशोकराम अनुभव कर देख्या , सारी तर्क हटादी ।।4।।






(39) भजन

साधो भाई मैं हूँ ब्रह्म अपारा ।
हिंलू नही डिंगू मंरू नही जन्मू , तीन काल से न्यारा ।।टेर।।
त्वम पद जीव और तत् पद ईश्वर , अविद्या माया लारां ।
असि पद मैं है मेरा बासा , सब मेरे आधारा ।।1।।
पुरूष पुरातन सबका स्वामी , हूँ सबका करतारा ।
हूँ स्वतन्त्र सदा निरबन्ध , सबका जानन हारा ।।2।।
मेरी सत्ता से सब जग रचिया , फिर भी रहता न्यारा ।
मेरा स्वरूप सर्व में पूरण , मेरा अन्त न पारा ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , सच्चा दिया ईशारा ।
अशोकराम सब मैं ही मैं हूँ , मेरा सकल पसारा ।।4।।



(40) भजन

साधो भाई मैं हूँ शुद्ध प्रकाशी ।
सबको मैं चमकाता जग में , मुझसे होत उजासी ।।टेर।।
सदा प्रकाशी हूँ अविनाशी , मैं ही सबको तपासी ।
मेरा चमका रहे अखण्डित , कदै न होवे नाशी ।।1।।
चन्द्र और ग्रह तारा भी , मुझसे ज्योति पासी ।
मेरी ज्योति है परिपूरण , सदा करे सुखराशि ।।2।।
सत्त चित्त आनन्द रूप रोशनी , सब अंधियारा मिटासी ।
सब ज्योति मेरे ही वश है , नाना खेल दिखासी ।।3।।
मैं तो ज्योतिर्ब्रह्म कहाऊँ , सर्व घटो का वासी ।
अशोकराम निज रूप परख के , सोहं ब्रह्म लिखासी ।।4।।




(41) भजन

साधो भाई निर्गुण देव हमारा ।
सबमें व्यापक सबका सहायक , तीन गुणो से न्यारा ।।टेर।।
निराकार है अलख निरंजन , निरालम्ब निराधारा ।
तीन काल में रहे एक रस , अखय अखण्ड अपारा ।।1।।
आदि अनादी , देव अनामी , लखण भखण के पारा ।
सत चित्त आनन्द रूप अकर्ता , नही जाणे संसारा ।।2।।
सामान्य रूप से सभी ठोर है , नही मन्दिर न पुजारा ।
ब्रह्म अपार सर्व घट वासी , सब घट करे उजारा ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , दिया शबद टकसारा ।
अशोकराम निरंजन देवा , सुमरूं बारम्बारा ।।4।।




(42) भजन

साधो भाई सदा मुक्त ब्रह्मज्ञानी ।
एको ब्रह्म सर्व घट दर्शे , मेटी खिंचाताणी ।।टेर।।
जहाँ से आया वहाँ समावे , ऐसी निश्चय ठाणी ।
आपहुँ खोज आपको भेंटा , यही अमर निशानी ।।1।।
धोखा मिटा सत्य घर पाया , मेटया जम की डाणी ।
मिट गया काल जाल भव बन्धन , जीवत मोक्ष पिछाणी ।।2।।
जीव ब्रह्म की करी एकता , पद पावे निर्वाणी ।
सहजां लागी ज्ञान समाधी , अखै सुन्न घर जाणी ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , संत बड़ा महादानी ।
अशोकराम निर्भय पद पाकर , असि पद जाय समानी ।।4।।




(43) भजन

साधो भाई चेतन पुरूष पुराणा ।
ज्ञान दृष्टि बिन नजर न आवे , जतन करो चाहे नाना ।।टेर।।
एक अखण्डी मूल सभी का , नही चौड़े नही छाना ।
रूप बनाकर नाना जग में , रहता एक समाना ।।1।।
ऋषि मुनि अवतार देवता , इसका धरते ध्याना ।
सबका स्वामी , अन्तर्यामी , सर्व ठोर स्थाना ।।2।।
लख चौरासी जीवा जूण में , बहुरंगी है बाना ।
ज्ञानी  हो सो परख करत है , मूरख नही पहचाना ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , ब्रह्म निष्ट निर्वाणा ।
अशोकराम कहे रे साधो , हरदम दर्शन पाना ।।4।।




(44) भजन

मैं लिखया निर्गुण देव गुंसाई ।
निराकार है नही साकारी , रंग बरण में नांई ।।टेर।।
पाँच तत्व  प्रपंच कहिजै , त्रिगुण भी है झांई ।
अखय स्वरूपा देव निरंजन , सर्व जगत का सांई ।।1।।
अनघड़ रूप अजन्मा पाया , काल वहाँ थक जाई ।
ऐसा मेरा सच्चा देवा , निरखूं परखूं सदाईं ।।2।।
देही , कर्म , इन्द्री , मन , बुद्धि , यांका सफर उड़ाई ।
ज्ञानी हो सो देखे हरदम , मूरख गोत्या खाई ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , निर्गुण दिया लिखाई ।
अशोकराम कहे रे साधो , उलट खोज घट मांही ।।4।।




(45) भजन

सतगुरू ऐसा देश दिखाई ।
आदि अन्त वहाँ होता नांही , नही माया की झांई ।।टेर।।
नही चन्दा नही सूरज कहिये , पंच कलेश थक जाई ।
स्वर्ग नरक नही चारों मुक्ति , नही योग सिद्धाई ।।1।।
चारों बरण , आश्रम नांही , जात पांत कुल नांई ।
धरण गगन पाताल नही है , नही जरणी नही जांई ।।2।।
बिन करणी वहाँ खेल अनोखा , क्षर अक्षर मिट जाई ।
नही जुगति नही मुक्ति कहिये , न कोई लगन लिखाई ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया ,असल भौम दर्शाई ।
अशोकराम उण देश के मांही , मूरख पहुंचे नांही ।।4।।






(46) भजन

साधो भाई मेरा सकल पसारा ।
मैं ही हूँ आधार जगत का , मेरा ही विस्तारा ।।टेर।।
मैं ही सबका मूल कहीजै , पान पेड़ फूल डाला ।
मेरा खेल खरा कुदरत में , मैं ही हूँ करतारा ।।1।।
मैं ही माता मैं ही पिता हूँ , मैं ही पुत्र परिवारा ।
मैं ही जीव हूँ ,मैं ही ईश्वर , मैं ही ब्रह्म पुकारा ।।2।।
मैं ही धरणी , मैं ही गगना , चन्द्र सूरज और तारा ।
मेरा हुकम फिरे नौ खण्डा , मैं सबमें , मैं न्यारा ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , मेट्या भरम हमारा ।
अशोकराम कहे रे साधो , मेरा अन्त न पारा ।।4।।






(47) भजन

साधो भाई सोहं शबद पुकारा ।
गुरू वचना का डंका लाग्या , निर्भय बज्या नंगारा ।।टेर।।
चौदह लोक में शब्द गूंजया , कान लगाया सारा ।
अनहद नाद सभी को भाया , बाज रहया झणकारा ।।1।।
तीन , पाँच , नौ , दस , पच्चीसू , हो गया सब होशियारा ।
लागी चोट सब घायल हो गया , खुलग्या भरम किवारा ।।2।।
सोहं सोहं हंसो हंसो , श्वास उश्वांस उचारा ।
आपहुं आप अखण्ड धुन चाली , ये ही अटल आधारा ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , मेटया सर्व विकारा ।
अशोकराम निज शबद धारया , दूजा नही निहारा ।।4।।






(48) भजन

सतगुरू ऐसा अलख लिखाया ।
रंग नही बरण , रूप नही रेखा , नही धरता है काया ।।टेर।।
प्रगट से प्रगट , गुप्त से गुप्ता , कर दर्शन सुख पाया ।
ज्ञान आँख की पलक खोलता , निज घट खोल दिखाया ।।1।।
मगन हुआ परमानन्द छाया , कहने में नही आया ।
सत चित्त आनन्द रूप अनोखा , कर अनुभव दर्शाया ।।2।।
नही काला नही गौरा कहीजै , नही धूप नही छाया ।
नही बूढ़ा और नही है बाला , नही पिता नही माया ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , स्थिर सदा रहाया ।
अशोकराम कहे रे साधो , भीतर आय समाया ।।4।।






(49) भजन

पाया जी मैने घट अपना में राम ।
चौदहा लोक का देव निरंजन , सांची वांकी धाम ।।टेर।।
सत्य रूप सदा अविनाशी , जल रही ज्योति महान ।
सबका स्वामी अन्तर्यामी , कर देख्या पहिचान ।।1।।
वेद पुराण और गीताजी , देती आतम ज्ञान ।
सारी तर्क मिटाया सतगुरू , दे दे अनुभव बाण ।।2।।
भाग पूरबला उदय हुया जी , उगया घट में भाण ।
अन्तस घट में दर्शन पाया , लिया अविनाशी जाण ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , कर दीना कल्याण ।
अशोकराम निजनूर परखिया , मेटी चारों खान ।।4।।



(50) भजन

साधो भाई निर्गुण पंथ हमारा ।
छापा तिलक और कंठी माला , ये हमने नही धारा ।।टेर।।
मन्दिर , मस्जिद  नही देवरा ,  न कोई तीरथ हमारा ।
सूरत , मूरत , सब ही छोड़ी , रंग बरण सब टारा ।।1।।
बिना तेल की ज्योती जले है , करे अखण्ड उजियारा ।
होत प्रकाश मिटे अंधियारा , कर देख्या निरधारा ।।2।।
निर्गुण है त्रिगुण के ऊपर , सब पंथो से न्यारा ।
इसको छोड़ और को ध्यावे , जावे यम के द्वारा ।। 3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , मेटया संकट सारा ।
अशोकराम सबसे उत्तम है , निर्गुण का झणकारा ।।4।।







(
51) भजन


निरंजन साधु घट  में राम लिखाया ।
नही काशी नही पुरी द्वारिका , भीतर देव पुजाया ।।टेर।।
श्रवण , मनन निधिध्यासन करके , सोहं नाद बजाया ।
सप्त भौम पर लगे अखाड़ा , निर्भय हरि गुण गाया ।।1।।
ज्ञान समाधि माँही बैठके , माया सफर उड़ाया ।
परमानन्द की करी प्राप्ति , सब झगड़ा छुड़वाया ।।2।।
भीतर दृष्टि पलट गई जद , देव निरंजन पाया ।
भूल मिटी और छूटी कल्पना , आप में आप समाया ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , भव बन्धन कटवाया ।
अशोकराम निज मन्दिर मांही , हरष हरष गुण गाया ।।4।।






(
52) भजन

साधो भाई सतगुरू भेद बतावे ।
आपा मेट आप को पावे , कर दर्शन सुख पावे ।।टेर।।
ज्ञाता , ज्ञान और ज्ञैय नही है , न कोई दूजा भावे ।
ध्याता , ध्यान और ध्येय मिटावे , बन्धन मुक्त करावे ।।1।।
हर्ष , शोक और मरना जीना , ममता जाल कटावे ।
भूल मेट दुविधा को काटे , आतम रूप लिखावे ।।2।।
पाप पुण्य की करी निवृत्ति , जग व्यवहार मिटावे ।
नाम , रूप , गुण , क्रिया मेटे , दुतिया भाव हटावे ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , कुंजी खोल दिखावे ।
अशोकराम कहे रे साधो , सतगुरू फंद छुड़ावे ।।4।।




(
53) भजन

साधो भाई  बिरला ने गम जाणी ।
निज सागर में कूद पड़या जद , पाई अमर निशानी ।।टेर।।
देवल आप पुजारी देवा , आप ही वेद पुराणी ।
आप ही जीव , ईश और माया , आप ही चारूं खानी ।।1।।
योगी त्यागी सिद्घ आप है , आप भया ब्रह्मज्ञानी ।
ब्रह्म विष्णु महेश आप है , आप ही शक्ति ठाणी ।।2।।
भक्त आप भगवन्त आप है , आप तपस्वी ध्यानी ।
धरण गगन पवना और पाणी , अग्नि माँही समानी ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , मेटया खींचाताणी ।
अशोकराम सतगुरू कृपा से , एको ब्रह्म पिछाणी ।।4।।




(54) भजन

मेरे गुरू आतम राम लिखाया ।
ढूँढ रहा था बन बन माँही , निज घट खोल दिखाया ।।टेर।।
तीर्थ बरत और नेम धर्म का , सारा सफर उड़ाया ।
भरमी पड़दा दूर हटाया , सारी भूल मिटाया ।।1।।
ईश्वर , जीव , अनुमान , कल्पना , स्वप्न , काल और माया ।
जीव ब्रह्म की करी एकता , जीवत मोक्ष पठाया ।।2।।
ज्ञान समाधी में गोत लगाई , हंसा मोती पाया ।
निज सागर की लहरां मांही , नूर में नूर समाया ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , अन्तर दरस कराया ।
अशोकराम सब धोखा मिटग्या , फैर धरूं नही काया ।।4।।




(55) भजन

साधो भाई मेरा देश अमर है ।
जानेगा कोई सन्त सूरमा , वहाँ हमारा घर है ।।टेर।।
सप्त भौम पर देश हमारा , नही किसी का डर है ।
वहाँ पर जनम मरण नही होता , नही धरण अम्बर है ।।1।।
नही मानुष नही देवी देवता , नांही यक्ष असुर है ।
उसी देश का राजा निरंजन , वही हमारा वर है ।।2।।
स्वर्ग नरक वहाँ होते नाही , नही नारी नही नर है ।
यम राजा वहाँ पहुँचे नाही , वहाँ आनन्द लहर है ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , सच्ची करया महर है ।
अशोकराम उण देश के माँही , रहता अष्ट प्रहर है ।।4।।




(56) भजन

साधो भाई निर्गुण से साकारा ।
मूरख जीव कदै नही समझे , भरम रहया संसारा ।।टेर।।
रोम रोम में बाज रहया है , निर्गुण का झणकारा ।
सबका कर्ता रहे अकर्ता , रहता सबसे न्यारा ।।1।।
त्रिगुण है माया का खटका , त्रिदेवो की लारा ।
पांच भूत पच्चीस प्रकृति , निर्गुण के आधारा ।।2।।
सबमें पूरण व्यापक रहता , एक अखण्ड करतारा ।
अनुभव ज्ञान बिना नही पावे , मिटता नही विकारा ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , रूप धरया साकारा ।
अशोकराम जानेगा कोई , सत्य गुरां का प्यारा ।।4।।




(57) भजन

साधो भाई गुरू वचना से पारा ।
जुगति जुगत करो विधि नाना , नही पावे छुटकारा ।।टेर।।
मल , विक्षेप ,आवरण मेटो , छोडो सकल विकारा ।
चित्त , मन , बुद्धि दृढ़ कर राँखो , झठ काढो अहंकारा ।।1।।
भक्ति , योग , वैराग्य , ज्ञान की , बहती अमृत धारा ।
श्रवण , मनन , निधिध्यासन करलो , मेटो सर्व विकारा ।।2।।
दस इन्द्रियों का रथ बनाके , होजा अचल असवारा ।
सत मारग पर दौड़ लगाकर , सुरति डोर निहारा ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , सच्चे सिरजन हारा ।
अशोकराम सतगुरू कृपा से , मिलता सहज किनारा ।।4।।




(58) भजन

सतगुरू ऐसा ज्ञान बताया ।
नुंगरा से सुंगरा कर दीना , साँची प्रीत कराया ।।टेर।।
सब जग का झूंठा व्यवहारा , श्रवण ज्ञान सुनाया ।
सत , असत का करया निवेड़ा ,  पारख कर समझाया ।।1।।
भगति योग विधिवत दीना , विवेक , वैराग कराया ।
शम-दम-साधन पूरण कीना , निधिध्यासन समझाया ।।2।।
सुरत शबद की करी एकता , पूरण ब्रह्म दिखाया ।
आप साक्षी सारे जग का , सत दर्शन करवाया ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , असल भौम ठहराया ।
अशोकराम सतगुरू कृपा से , सोहं रूप लिखाया ।।4।।




(59) भजन

साधो भाई घट में फेरया माला ।
सकल पदारथ घट में दरस्या , खुलग्या भरमी ताला ।।टेर।।
घट में मन्दिर और पुजारी , जल रही ज्योति ज्वाला ।
घट में शंख नाद धुन बाजे , बाजे मृदंग घड़ियाला ।।1।।
घट मे सात समुन्दर भरिया , मोती और मराला ।
घट में गंगा जमुना सरस्वती , बहे नहियां और नाला ।।2।।
घट में चन्दा सूरज चमके , चमके नौ लख तारा ।
घट में पापी धर्मी रहता , जोगी तपे मतवाला ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , दीनी सोहं माला ।
अशोकराम जुगत कर फैरया , भीतर हुआ उजाला ।।4।।




(60) भजन

साधो भाई सपना का संसारा ।
नींद छोड़ जागे कोई सूरा , सांचा गुरां का प्यारा ।।टेर।।
जो कोई याने सांचो माने , डूबेगा मझधारा ।
काम , क्रोध , आलस , निद्रा में , खो दिया सारा जमारा ।।1।।
सपना का ही मात पिता है , सपना का परिवारा ।
सपना का नारी सुत , बन्धु , सपना का संसारा ।।2।।
सपना का ही चन्दा सूरज , सपना का नौलखतारा ।
सपना का ही धरती अम्बर , सपना का तन धारा ।।3।।
देखे और सुणे जो सपना , मत कर सोच विचारा ।
अशोकराम ले ज्ञान गुरां से , अब तो चेत गंवारा ।।4।।




(61) भजन

साधो भाई माया खेल अपारा ।
नाना खेल करत है जग में , उलझाया संसारा ।।टेर।।
सकल सृष्टि माया का चारा , जाने गुरूमुख प्यारा ।
ब्रह्म , विष्णु , महेश सरीखा , नही पाया छुटकारा ।।1।।
आठ सिद्धि और नौ निधिसारी , माया का विस्तारा ।
त्रिगुण पांच , पच्चीसूं हरदम , रहता यांकी लारा ।।2।।
मान-बढ़ाई-कुल , अभिमाना , सुत-धन , त्रिया सारा ।
सब माया का रूप ही जानो , रवि चन्द्र और तारा ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , दिया शबद टकसारा ।
अशोकराम ज्ञानी ही बचग्या , कर माया छुटकारा ।।4।।





(62) भजन

सब जग झूंठा देव मनावे ।
सांचा देव त्रिगुण से न्यारा , कोई कोई हरिजन ध्यावे ।।टेर।।
अलख निरंजन सबका स्वामी , अविनाशी कहलावे ।
जो सबके देखन में आवे , सो क्या अलख कहावे ।।1।।
कोई पूजे पाथर मूरत , पृथ्वी तत्व पूजावे ।
अग्नि हौत्र सूरज की पूजा , पावक तत्व नवावे ।।2।।
पवन खैंच प्राणा में मिलावे , वायु तत्व लखावे ।
न्हावे धोवे नीर चढ़ावे , जल तत्वा ठहरावे ।।3।।
गगन मण्डल में दृष्टि राँखे , तत्व आकाश दिखावे ।
अशोकराम पांचा से छठा , गुरू कृपा से पावे ।।4।।




(
63) भजन

साधो भाई भरम रहया संसारा ।
सतगुरू सैन बिना नर भटके , बीता जाय जमारा ।।टेर।।
मान बढ़ाई कर कर भरया , करोड़ पाप का भारा ।
काम , क्रोध , अभिमान न छूटे , कैसे हो उद्धारा ।।1।।
योग , कर्म , सिद्धि कर नाना , करया जतन हजारा ।
आतम ज्ञान बिना नही मिलता , भवबन्धन छुटकारा ।।2।।
षट दर्शन मिल खोजण चाल्या , कीन्हा ब्रह्म विचारा ।
सतगुरू भेटया , सुरत सम्भांलया , हो गया पैली पारा ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी आया , चढ़ाई  उलटी धारा ।
अशोकराम भरम सब तोड़या , निज प्रीतम की लारा ।।4।।




(64) भजन

साधो भाई याँसू राम बचावे ।
बाना धारण करे सिंह का , चाल भेड़ की पावे ।।टेर।।
ज्ञान ध्यान कछु जाणत नांही , माँगत भिक्षा खावे ।
कोई ने पुत्र , कोई ने पुत्री , आशीर्वाद जणावे ।।1।।
माला पहर मोटा मूंगा की , मन में सिद्ध कहावे ।
बाहर उजला , भीतर मेला , जग में ढोंग रचावे ।।2।।
तन मूण्डया , पर मन नही मूण्डया , विद्वानी बण जावे ।
ऐसे जन की होवे दुर्गति , जनम जनम दुःख पावे ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , सांची समझ बतावे ।
अशोकराम कहे रे साधो , करणी का फल पावे ।।4।।




(65) भजन

अब क्यूं भरमे मूढ गंवारा
कर्म काट चौरासी फंदा , झठ पाले छुटकारा ।।टेर।।
तीरथ बरत व नैम धर्म में , उलझ रहयो संसारा ।
देह अभिमान छोड़ दे सारा , करले शुद्ध विचारा ।।1।।
अपणा शत्रु आप भया रे , हरष शोक ले लारां ।
इन्द्रिया सुख भोगण के तांई , मलीन अवस्था धारा ।।2।।
बोध करो बुद्धि से भाई , चित्त से चेतन प्यारा ।
द्वेत भाव को दूर हटाले , शुद्ध स्वरूप हमारा ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , जाणो नित अवतारा ।
अशोकराम चेतन हो भाई , गुरू शबद की लांरा ।।4।।




(66) भजन

साधो भाई गुरू बिन कौण छुड़ावें ।
जीव फँस्या धोखा के माँही , उलझ उलझ मर जावे ।।टेर।।
भूल्या जीव भरमता डोले , साँच समझ नही आवे ।
गुरू सन्तों की सीख न माने , विरथा जनम गंवावे ।।1।।
देही पलटकर रूप दिखावे , मोटा सिद्ध कहावे ।
चैला मूंडे ठगे लोगां ने , डूबे और डूबावे ।।2।।
ग्रह शनि और राहू लगावे , अपना काज बनावे ।
ले रूपया नारैल भेंट में , लोगां ने बहकावे ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , भूल्या ने समझावे ।
अशोकराम कहे रे साधो , मूरख गोत्या खावे ।।4।।




(67) भजन

साधो भाई नही समझे अज्ञानी ।
भैरू-भूत-भवानी ध्यावे , गुरां से करत गलानी ।।टेर।।
कर पाखण्ड ठगे लोगां ने , करता नित नादानी ।
कहे गुरू से बड़ा देवता , लोगां ने बहकाणी ।।1।।
खुद तो पाप करे नित खोटा , भोला ने उलझाणी ।
कहे देवता तीन लोक की , सारी बातां जाणी ।।2।।
मन इन्द्रिया काबू में नाही , बोले मीठी बाणी ।
वेद शास्त्र का पढ़े न पाना , गुरू के दोष लगाणी ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , ब्रह्म ज्ञान का दानी ।
अशोकराम तू शरणो ले ले , डूबेला अभिमानी ।।4।।




(68) भजन

साधो भाई सब जग धोखा मांई ।
भूल्या भरम भूल में भटके , आगे की गम नांई ।।टेर।।
आंधा ने आंधो मिल जावे , मारग कौण बताई ।
चालण लागे वाँकी संग में , गिरे गर्त में जाई ।।1।।
पाथर पूजे देवी देवता , माँगत टाबर आई ।
काळी पूज , भैंरू ने पूजे , भैंसा ऊँट कटवाई ।।2।।
भेड़ की पूंछ के भेड़ बन्धी है , ऊँट के ऊँट बन्धाई ।
साँच की जाँच गुरू से होवे , ब्रह्म मिले घट मांई ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , करते सदा भलाई ।
अशोकराम कहे रे साधो , सतगुरू भूल मिटाई ।।4।।




(69) भजन

साधो भाई राम सुमर मेरे भाई ।
राम नाम पाषाण तारया , तीन लोक जश छाई ।।टेर।।
राम कहयां से राम नही मिलता , करलो लाख उपाई ।
राम लिखे कोई सन्त शूरमा , सतगुरू पूरा पाई ।।1।।
एक राम पुत्र दशरथ का , दूजा परसा उठाई ।
तीजा राम अविनाशी कहिये , चौथा घट घट मांई ।।2।।
खाण्ड कहयां मुख मीठा नांई , देखत सुणता नांई ।
लेई उठाई मुखड़ा मे मेले , देवे स्वाद बताई ।।3।।
राम नाम आधार जगत का , सतगुरू दे समझाई ।
अशोकराम निरन्तर सुमरो , मिट ज्या जग की झांई ।।4।।




(
70) भजन

मनवा इक दिन होगा जाना ।
तन का कोई भरोसा नांही , क्यू करता अभिमाना ।।टेर।।
ठोकर लाग पत्थर से पग में , निकल जायेगा प्राणा ।
धन परिवारा छोड़ चलेगो , पल माँही उड़ जाणा ।।1।।
सब भायां सूँ प्रीत जोड़ले , झूँठा है बैर बढ़ाणा ।
थारी म्हारी छोड़ बावरा , मत कर खींचाताणा ।।2।।
ऐंठ मरोड़ छोड़कर अब तो , कदै नहीं इतराणा ।
साधु संगत हरि भजन कर , मिटज्या आणा जाणा ।।3।।
वेद-पुराण-गीता जी पढले , धर सतगुरू का ध्याना ।
अशोकराम कहे रे मनवा , मिटज्या दुःख का पाणा ।।4।।




(71) भजन

अरे मन ज्ञान बिना दुःख पावे ।
मानुष जनम अमोलक हीरा , विरथा मती गंवावे ।।टेर।।
विषय वासना माँही उलझकर , क्यूं तन से दुःख पावे ।
बीती अवधि फैर न आवे , समज्याँ से सुख पावे ।।1।।
साधु संगत सतगुरू सेवा , चौरासी कटवावे ।
अमर लोक की डोर बन्धावे , बन्धन मुक्त करावे ।।2।।
वहाँ का गया फैर नहीं आवे , ऐसो ज्ञान बतावे ।
जीवत मरे घटे नही काया , मर जीवा कहलावे ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , भरम जाल छुड़वावे ।
अशोकराम कहे ज्ञान अगन से , सारा पाप जलावे ।।4।।




(72) भजन

कटज्या दुःखड़ो जनम मरण को ।
सतपुरूषां की शरण बैठकर , करले काम तरण को ।।टेर।।
सुत दारा कुल को मोह भारी , लालच बढ़गयो धन को ।
सारी ऊमर पच पच हारयो , आयो न ध्यान भजन को ।।1।।
इन्द्रियाँ थारी कदैं न मारी , मुख मोड्यो नहीं मन को ।
मान बढ़ाई डींग हाँकता , तेज सुखायो तन को ।।2।।
मतवालो बण जग में डोल्यो , आग्यो वक्त मरण को ।
असल ज्ञान को सार न जाण्यो , कर कर शोक विषन को ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी आया , कटा करम बन्धन को ।
अशोकराम कहे रे साधो , बण जा गुरू चरण को  ।।4।।




(73) भजन

साधो भाई नुंगरा बात बणावे ।
नित सतसंग में करे लड़ाई , अपनी डींग चलावे ।।टेर।।
चोरी कर कर छाने चुपके , नित नया भजन बणावे ।
वेद वेदान्त की साख न माने , गुरू जी के दोष लगावे ।।1।।
बढ़ बढ़ बातां करे ब्रह्म की , सार समझ नही पावे ।
कदै न सेवा करे संत की , झूंठा स्वांग रचावे ।।2।।
आलस और निदंरा के माही , सारो जनम गंमावे ।
मात-पिता , बंधु-सुत , त्रिया , सबका प्राण खिजावे ।।3।।
ज्ञानस्वरूपजी सतगुरू मिलिया , असल सार समझावे ।
अशोकराम नुंगरा मत बणज्यो , खीज खीज मर जावे ।।4।।




(74) भजन

नुंगरा असल सार नही पावे ।
खींचाताण मचावे भारी , उलझ उलझ मर जावे ।।टेर।।
प्रारम्भ में शुभ कर्म न कीन्हा , माया में भरमावे ।
मन मौजी कहणू नही माने , ज्ञान कहाँ से पावे ।।1।।
गांजा , सुलफा , भाँग , मदिरा , पीवे ओर पिलावे ।
कर कर नशा वे जनम बिगाड़या , काया से दुःख पावे ।।2।।
अभिमानी छूटे नहीं वांकी , अकड़ कदै नहीं जावे ।
बहुमत कर सतसंग में बैठे , निन्दक बाण चलावे ।।3।।
राग द्वेष और मान बढ़ाई , वाँने सदा सुहावे ।
अशोकराम कहे रे साधो , उलझ उलझ मर जावे ।।4।।




कुण्डलियाँ

गरभ करे सो बावरा , करता खींचाताण ।
करै ब्रह्म की बात पर , भीतर भरया अज्ञान ।।
भीतर भरया अज्ञान , जातिकुल की अभिमानी ।
ऊपर दीखे ऊजला , भीतर भरी गलानी ।।
अशोकराम वो नर सदा , पड़े जमो की डाण ।
गरभ करे सो बावरा , करता खींचाताण ।।




(75) भजन

समझ नर मत कर तू अभिमान ।
आखिर में तू खाक बनेगा , केवल मौत निदान ।।टेर।।
जुंगा जुंगा से देखत आया , कंईयो का खलिहाण ।
हिरणाकुश , रावण सा राजा , हो गया धूल समान ।।1।।
बलि , दुःशासन , दुर्योधन भी , हो गये काया हाण ।
कौरव पाण्डव , खप गया रण में , सो गया खूंठी ताण ।।2।।
काया माया झूंठी सारी , झूंठी तेरी शान ।
जम का दूत झपट ले जावे , डेरा दे शमशान ।।3।।
सतगुरू वचन धार हिरदा में , धर चरणा में ध्यान ।
अशोकराम कहे रे साधो , दो दिन का मेहमान ।।4।।




(76) भजन

नाम सुमर तू पार उतरले , भव सागर की धारा रे ।
सांचा शरणा गुरूदेव का , पल में लेत उबारा रे ।।टेर।।
सत्य नाम है जग आधारा , मिटता कष्ट अपारा रे ।
गुरू नाम की डोर बांधले ,  घट में करे उजाला रे ।।1।।
सभी धर्म से नाम बड़ा है , ये सबका आधारा रे ।
नाम समा कोई दूजा नांही , ये ही सत्य सहारा रे ।।2।।
नाम बिना मुक्ति नही होवे , झूंठा जाण जमारा रे ।
अष्ट सिद्धि और नौ निधि भी , सदा नाम की लारां रे ।।3।।
नाम का दान गुरू से पाले , खोले भरम का ताला रे ।
अशोकराम शरण सतगुरू की , सहाय करे प्रतिपाला रे ।।4।।





(77) भजन

प्रेम रस पीले रे , गुरूजी से ले ले ज्ञान ।
हरि रस पीले रे , हो जासी कल्याण ।।टेर।।
सतगुरूजी अमृत बरसावे , पीवे सो अमरापुर जावे ।
जनम मरण का फन्द छुड़ावे , तू ले अविनाशी जाण ।।1।।
सतगुरू देव निरंजन देवा , दुःख मिट जावे कर तू सेवा ।
सहजां पावे भगति मेवा , थारी मेटे खींचाताण ।।2।।
पी गई रस ने मीरां बाई , गोरख , दत्त , रैदास , गुंसाई ।
जो पीवे सो अमर हो जाई , थारा घट में मिले भगवान ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी आया , सतचित्त आनन्द रस बरसाया ।
अशोकराम चरणामृत पाया , अब करो सदा गुणगान ।।4।।




(78) भजन

पिया के बिना कैसे होवेगो उद्धार ।
बीत्या औसर फैर न आवे , मत खोवे बैकार ।।टेर।।
पीव सुधारे गति नारी की , पीव उतारे पार ।
पीव बिना कोई न साथी , झूंठा सब परिवार ।।1।।
अब तो जनम सुधारो बहना , मिल्यो मानुष अवतार ।
करो पिया की सेवा बहना , यो साँचो आधार ।।2।।
झूंठा जग में मत भरमावे , कोई न जासी लार ।
चरण पूजले पतिदेव का , जम जावे घबरार ।।3।।
तीरथ बरत पति बिन फीका , मत होवे लाचार ।
अशोकराम कहे री बहना , पीव उतारे पार ।।4।।




(79) भजन
गुरूजी साँच बतावे रे –
पति चरणां में ध्यान लगा , अमरापुर जावे रे ।।टेर।।
सती अनुसूइसाँ ध्यान लगाई , पति चरण में सुरत जमाई ।
पालणिये त्रिदेव झुलाई , ब्रह्मा-विष्णु-महेश ने झठ बालक
बनावे रे ।।1।।
पति व्रता सावित्री नारी , पति वचन की आज्ञाकारी ।
झूंठा जग से कदै न हारी , सती का तप से जम घबरावे ।।
सत्यवान छुड़ावे रे ।।2।।
सीता सी सतवंती नारी , लंका पति से कभी न हारी ।
पति चरणां ने नही बिसारी , अग्नि परीक्षा साँची पाई ।।
रामायण गावे रे ।।3।।
वेद पुराण शास्त्र सब गावे , सन्तो की बाणी फरमावे ।
पतिव्रता ही सती कहलावे , अशोकराम कहे री बहनो ।।
जग में यश छावेरे ।।4।।




(80) भजन

जगत में कैसी कैसी नार , ज्याँका बरण करूँ विस्तार ।।टेर।।
डंकणी बटका भर बतलावे , सारा घरकां ने ही खिजावे ।
मुख पर खोटी बात सुहावे , दिन भर करती रहे तकरार ।।1।।
नागणी फण का दे फटकारा , लागती बात बात की लारां ।
करदे सब घरकां ने न्यारा , भांया में फैलाती खार ।।2।।
शंखणी जोर जोर सूं बाजे , जाणे गगन बादलो गाजे ।
सुसरा जेठ जिठाणी लाजे , खाबां में बड़ी होशियार ।।3।।
हंसणी पतिव्रता है नार , चालती सदा वचन की लार ।
अशोकराम वो लक्ष्मी विचार , वाँसू सदा सुखी परिवार ।।4।।





(81) भजन

साधो भाई निर्धन की कौण चलावे ।
जागिरदार महंत बण बैठ्या , पूंजीपति कहलावे ।।टेर।।
धन माया की आशा राखे , वो कांई साधु कहावे ।
भारी भेंट चढ़ावे ज्यांके , झठ सतसंग में आवे ।।1।।
नरसी भगति करया प्रेम से , सारी माया लुटावे ।
रैदास भक्त और साहेब कबीरा , माया दूर हटावे ।।2।।
मींरा तजया महल मालवा , हरि संग डोर लगावे ।
झूंठा जग की आश त्यागकर , राज पाट तज जावे ।।3।।
टूटी टपरी , सूखा भोजन , जो मिलया सो पावे ।
ऐसा जन ही साधु कहावे , परमारथ कर जावे ।।4।।
निर्धन से यो जग है दूरो , वांकी हंसी उड़ावे ।
अशोकराम निर्धन संग हीरा , कोई बिरला ही पावे ।।5।।




(82) भजन

सन्तो में हरि का है वासा , प्रगट होकर बोले रे ।
टूटे भरम मिटे सब धोखा , मेल मना का धोले रे ।।टेर।।
तीरथ से मुक्ति नहीं पावे , ज्ञान गुरूजी खोले रे ।
रति बराबर काण न रांखे , सत की तराजू तोले रे ।।1।।
देव मूरति मंदिर में बैठी , वा कांई मुख से बोले रे ।
सोहं नाम की माला जप ले , मन मणिया में पोले रे  ।।2।।
जनम जनम की पूंजी देवे , ज्ञान गाँठड़ी खोले रे ।
दिव्य दृष्टि सदा करावे , हरि का दर्शन जोले रे ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , अन्तर परदा खोले रे ।
अशोकराम सन्तो के शरणै , पर्वत राई ओले रे ।।4।।




(83) भजन

सुनलो मेरे सज्जनो सत पुरूषों का ज्ञान ।
भूल गया गीता रामायण , भूला वेद पुराण ।।टेर।।
श्री कृष्ण ने श्रीमद् भगवद् , गीता ग्रंथ रचाया ।
अर्जुन को दी सीख ज्ञान की , आतम तत्व लिखाया ।।
नर देही पाने का मतलब , अर्जुन को समझाया ।
चेतन ही परमातम दीखै , और दीखती माया ।।
ज्ञानी मुझमें , मैं ज्ञानी में , कहे कृष्ण भगवान ।।1।।
रामायण में साख मिली , मर्यादा रांखी चारो भाई ।
आज्ञाकारी बने रामजी , पतिव्रता सीता माई ।।
पिता वचन–सिर धारणकर , तीनो प्राणी वन को जाई ।
चौदह वर्ष तक चरण पादिका , पूजे थे भरत भाई ।।
भाभी का मुख कभी न देखा , वो देवर थे लखनाई ।
गुरू वचन को धार हमेशा , चरणन की सेवा पाई ।।
अपने अपने कर्म धारकर , जग में कमा गये नाम ।।2।।
चार रिश्ते हैं जग में भारी , करो जाँच व सत्य पिछाण ।
पहला रिश्ता माता–पुत्र का , ममता का है रूप महान ।।
दूजा रिश्ता पिता–पुत्र का , कर सेवा तू आज्ञा मान ।
तीजा रिश्ता भगवान–भक्त का , कर भक्ति तू करले ध्यान ।।
चौथा रिश्ता गुरू–शिष्य का , सबसे उत्तम और महान ।
जीवत मुक्त करे है भव से , दे शिष्य के शब्दी बाण ।।3।।
जीव जन्तु चारों खानो में , बैठा है वो आतम राम ।
शुभ करणी कर जग के मांही , सब में तेरो रूप पिछाण ।।
तू है सबका , सब है तेरे , ये ही करले निश्चय ज्ञान ।
कर सतसंग देखले अब तो , तेरे ही घट में भगवान ।।
अशोकराम कहे रे सजनों , छोड़ो कपट का खेल महान ।।4।।




(84) भजन

सोहं सोहं गाओ साधो हंसो हंसो गाओ रे ।
मानुष जनम मिला मुश्किल से , विरथामती गंवावो रे ।।टेर।।
कर निश्चय तू गाढो हो जा , मन ने मति डिगाओ रे ।
मरम जाणले गुरूदेव से , भव बन्धन मिटवावो रे ।।1।।
सार जाण ले ले आधारा , डूबत ही तिर जावो रे ।
दुतिया भाव हटाओ सारा , एको ब्रह्म लिखाओ रे ।।2।।
असल नाम की रटना रटले , हंस रूप बन जाओ रे ।
हरदम श्वांस श्वांस में जपना , हिरदा नाम मण्डावो रे ।।3।।
ज्ञानस्वरूप जी सतगुरू आया , शरण चरण की आओ रे ।
अशोकराम काल का बन्धन , सोहं से कटवावो ।।4।।




(85) भजन

हेली म्हारी चालो गुरां जी के देश , देश वांको लागे पियारो ये ।
हेली म्हारी अखण्ड गुरांजी रो देश , काल को नही पसारो ये ।।टेर।।
हेली म्हारी चौदह लोक के पार , गुरां जी को देश निरालो ये ।
हेली म्हारी बिना ज्योत प्रकाश , हो रहयो घणो उजालो ये ।।1।।
हेली म्हारी गगन महल के मांही , बाजे अणहद झणकारो ये ।
हेली म्हारी सोहं सोहं तार , बाज रहयो है इकतारो ये ।।2।।
हेली म्हारी करम–भरम को नाश , ब्रह्म को होत पसारो ये ।
हेली म्हारी नही माया विस्तार , ब्रह्म को अन्त न पारो ये ।।3।।
हेली म्हारी ज्ञानस्वरूप गुरूदेव , बताया साँचो इशारो ये ।
हेली म्हारी अशोकराम निज देश के मांही , पावे छुटकारो ये ।।4।।




(86) भजन

साधो उलट भेद मन भावे ।
समझेगा कोई गुरूमुखी ज्ञानी , मूरख गोत्या खावे ।।टेर।।
पिता–पुत्र की गोद खेलता , पालणिये झुलावे ।
नारी का तो पुरूष भया है , बूढ़ा बालक बण जावे ।।1।।
किड़ी पै हाथी चढ़ आयो , देखत हाँसी आवे ।
पेड़ चढयो माली के ऊपर , भेड़ सिंह ने खावे ।।2।।
गूंगो राग छत्तीसूं गावे , बहरो ताल मिलावे ।
ऊपर धरणी नीचे अम्बर , उलट पुलट हो जावे ।।3।।
लँगड़ो दौड़ लगावे भारी , मुरदा भोजन खावे ।
अशोकराम कहे रे साधो , उलट खोज घर पावे ।।4।।




(87) भजन

साधो जुगति से योग कमाओ ।
जागृत स्वप्न सुषोपति त्यागो , तुरिया में दर्शन पावो ।।टेर।।
पदमासन ने सिद्ध करो जी , मूल के बन्ध लगाओ ।
सुखमणा की बारी आवे , प्राण में अपान मिलाओ ।।1।।
नाभि कंवल में नागिन मारो , बंकनाल चढ़ जाओ ।
बंकनाल के पेड़ी इक्कीसूँ , सुन्न पे सुन्न चढाओ ।।2।।
गगन मण्डल में रंग महल है , वहाँ पर सुरत जमाओ ।
नौ दरवाजा छेक जुगत से , दसवाँ पर आसन लावो ।।3।।
हँसकमल दल सतगुरू बैठया , कर दर्शन सुख पावो ।
अशोकराम कहे रे साधो , सत्य अमर घर पावो रे ।।4।।




(88) भजन

काया मन्दिर में देखाई रे , रंगीलो म्हारो श्याम ।।टेर।।
काया मन्दिर बणया भारी , रंग रंग की है चित्तरकारी ।
वांको आवे अन्त न पारी , चित्तरकार ने देख्याई रे ।।
वाँको है सुन्दर काम ।।1।।
मन्दिर का है दस दरवाजा , ऊपर वाँके बाजे बाजा ।
वहाँ पर बैठया निरंजन राजा , पाँच पच्चीसूं मंगलगाई रे ।।
याही है साँचीधाम।।2।।
पंच कोष का मण्डप सजावे , पवन सरीखा चँवर डुलावे ।
चौदह लोक ध्वजा लहरावे , मैं तो कर दर्शन सुखपाई रे ।।
रटूँली आठों याम ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी आया , अशोकराम ने दर्शन पाया ।
घट में आतम राम लिखाया , घट के माँही ज्योत जलाई रे ।।
दीना है सच्चा ज्ञान ।।4।।




(89) भजन

मत घूमे बीरा अन्धेरा में ।
पड़ग्यो क्यूं ऊण्डा हेरा में ।।टेर।।
जग में माया का फन्दा , कोई करम हो रहया गन्दा ।
कर कर के झूंठा धन्धा , कपटी धन भरयो बसेरा में ।।1।।
मनवा दो दिन का है जीणा , करो ज्ञान कपट तज दीना ।
कर तू ज्ञान कर्म प्रवीणा , आजा सन्ता का घेरा में ।।2।।
तू कर्म काटले काला , कट ज्याला मकड़ी जाला ।
कूदेला पाप का नाला , मत फँस रे झूंठा बखेड़ा में ।।3।।
गुरू ज्ञानस्वरूप जी आया , अमृत का मेवा ल्याया ।
अशोकराम जतन से पाया , झूमे संता का मेला में ।।4।।





(90) भजन

क्यूँ करता लाख जतन रे
तिर ज्यालो करले भजन रे ।।टेर।।
नही मन्दिर मस्जिद जाणा , घट में ही दर्शन पाणा ।
तू बणजा राम दीवाना , सुधरेगो थारो जनम रे ।।1।।
तू मान गुरां का कहना , मिट ज्याला जरणा मरणा ।
छूटेला जम का डाणा , बण ज्यालो हरि को जन रे ।।2।।
जाणले ओSम सोहं दो धारा , कर सुमरण ले आधारा ।
बण जा रे हरि का प्यारा , पावेगो आतम धन रे ।।3।।
कर ज्ञान बणो बैरागी , बण जाओ रे बड़भागी ।
जद सुरत ब्रह्म से लागी , पावेगो असल वतन रे ।।4।।
अशोकराम भजन यूं गाया . झठ कंचन होवे काया ।
छुटेगा काल का साया , सतगुरू की ले ले शरण रे ।।5।।





(91) भजन

कैसे नाच रहयो संसार ।
माया जोड़े लाख हजार ।।टेर।।
पाप की पूंजी जोड़े भारी , ज्यामें लिपट रहया नर नारी ।
वाने उमर बिगाड़ी सारी , कैसे होवेगो उद्धार ।।1।।
भूल्या मात–पिता को प्रेम , भूल्या करम–धरम न नेम ।
पाया नही गुरां से सैन , रह गयो रे असल गंवार ।।2।।
नर देही पाई अनमोल , यांमे सांचा हीरा टटोल ।
हिरदा की आँख्या खोल , लागे झूंठो सब संसार ।।3।।
गुरू ज्ञानस्वरूप महाराजा , असली पूंजी दे रहया आजा ।
चरणा में शीश नवाजा , अशोकराम जाणले सार ।।4।।






(92) भजन

सतगुरू का धर ध्यान बावरा , सतगुरू का धर ध्यान ।
साधु सन्त और ऋषि मुनि सब , करे सदा गुणगान ।।टेर।।
बहु परिवार देख मत फूले , दो दिन का मेहमान ।
पलक झंपकता जम ले ज्याला , सोवे खूंटी ताण ।।1।।
आठों प्रहर काल मण्डरावे , क्यूँ करता अभिमान ।
आखिर में तन खाक बनेगा , डेरा दे शमशान ।।2।।
झूंठी काया झूंठी माया , झूंठी तेरी शान ।
हाथी घोड़ा , माल , खजाना , छोड़ चले नादान ।।3।।
गुरू वचन ने धार हिया में , तन मन धन दे प्राण ।
अशोकराम गुरां जी के शरणै , निर्भय मोजां माण ।।4।।




(93) भजन

भजन बिन सूतो खूंटी ताण ।
काल सदा सिर ऊपर घूमे , भजले श्री भगवान ।।टेर।।
लख चौरासी , जीवा जूण में , नही पायो विश्राम ।
मानुष देही पाई मुश्किल से , अब तो रांखो ध्यान ।।1।।
कर्मा के वश भटक्यो भव में , अब तो रांख ईमान ।
चला चली का खेल जगत में , अपनो रूप पिछाण ।।2।।
स्वर्ग , नर्क है भोग स्थाना , मत फँसे रे नादान ।
औसर चूक मत खोवे हीरो , पाले मुक्ति धाम ।।3।।
मात , पिता , बन्धु , सुत , त्रिया , झूंठा खैल तमाम ।
अशोकराम भजन कर बन्दे , ले ले गुरां से ज्ञान ।।4।।




(94) भजन

है कर्म गति बलवान , सुणो सब भाई ।
कर देखो जतन हजार , पार नही पाई ।।टेर।।
क्यूँ करता सोच विचार , जाण मन माँही ।
तेरा लिखे विधाता लेख , टलेगा नांही ।।1।।
परमेश्वर का ये नियम , मिटेगा मिटाई ।
कर्मानुसार इस जग का , खेल रचाई ।।2।।
क्या राजा क्या रंक , भोगता जाई ।
ईश्वर के आगे , फिरती नही दुहाई ।।3।।
सत बात हमारी मान , जाण सच्चाई ।
अशोकराम छोड़ सब आश , भजन कर भाई ।।4।।




(95) भजन

श्री कृष्ण कहे सुण , अर्जुन बचन हमारा ।
झूंठी है काया जाण , झूंठ जग सारा ।।टेर।।
ये चेतन सबके माँही , अचल अविकारा ।
है अजर अमर अखण्ड , आतम हमारा ।।1।।
ये पाँच तत्व का खेल , शरीर तुम्हारा ।
आतम है साथी जाण , ये ही आधारा ।।2।।
मरना होगा सबको , जिसने तन धारा ।
जैसे वस्त्र पुराणा छोड़ , नये को धारा ।।3।।
ये आतम रहता , जनम मरण से न्यारा ।
जाना जो इसको , निकल गया भव से पारा ।।4।।
तू शरण हमारी आय , धर्म तज सारा ।
मत कर सोच विचार , ध्यान धर प्यारा ।।5।।
सबसे उत्तम है , ज्ञानी  भगत हमारा ।
अशोकराम कृष्ण जी साथ , लगावे किनारा ।।6।।




(96) भजन

सतगुरू का शबदां ने धारया , वो ही पीव मनाया ये ।
सोहं शिखर गढ़ रंग महल में , प्रीत पूरबली पाया ये ।।टेर।।
नाम बिना बन्धन नही छूटे , कोई बिरला नाम लिखाया ये ।
हिरदा कागज नाम मण्डाया , पीव पीव गुण गाया ये ।।1।।
आठों प्रहर अखण्ड धुन लागी , अनहद आनन्द छाया ये ।
शबद स्वरूपी पीव मनाया , सुखमण सैज बिछाया ये ।।2।।
प्रेम का बादल गगन मण्डल में , गरण गरण गरणाया ये ।
चेतन का चमका हो आया , देख मगन हो आया ये ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी म्हाने , पड़दा खोल दिखाया ये ।
अशोकराम अमर घर पाया , देख्या जो दर्शाया ये ।।4।।




(97) भजन

कनक कामणी रूप देख मत रीझै म्हारा भाई रे ।
सुन्दर रूप महाःदुःख दाई , उलझ–उलझ मर जाई रे ।।टेर।।
प्रजा–भूप और असुर–देवता , ऋषि मुनि उलझाई रे ।
माया रूप महाठिगनी है , सबकी मती डिगाई रे ।।1।।
गोत्तम नार अहिल्या देवी , इन्द्र चन्द्र मन भाई रे ।
इन्दर मुर्गो बणकर बोल्यो , आधी रैण जगाई रे ।।2।।
रावण सा लंका का राजा , खोटी नियत बनाई रे ।
माता सिया ने छल कर लेगयो , सारो कुल मरवाई रे ।।3।।
परनारी माता सम जाणो ,सतगुरू सैन बताई रे ।
अशोकराम कहे रे मनवा , जनम सफल हो जाई रे ।।4।।




(98) भजन

बैर हुआ भाई–भाई में , कैसा कलयुग आया रे ।
आपस में लड़–लड़ कर मरिया ,  देखो माँ का जाया रे ।।टेर।।
राजा दशरथ के चार पुत्र थे , कैसा प्रेम समाया रे ।
माँ भी उनकी अलग अलग थी , बन्धु रूप निभाया रे ।।
नाम कमा गये सारे जग में , तीन लोक जश छाया रे ।।1।।
बलराम कृष्ण की जोड़ी देखो , सारा जगत सराया रे ।
इनकी माँ भी अलग अलग थी , कैसी बात बणाया रे ।।
हलधर शेष रूप अवतारी , विष्णु कृष्ण कन्हैया रे ।।2।।
धन दौलत और माल खजाना , ये ही तुझे लड़ाया रे ।
इनके पीछे तू भूल गया तू , अपना और पराया रे ।।
भूल गया तू उस माता को , जिसने दूध पिलाया रे ।।3।।
क्या परमपिता ने इसलिए  , तेरा मानव रूप बणाया रे ।
जिसको करना था प्यार , उसी को तूने खूब रूलाया रे ।।
मात–पिता , बन्धु , सुत , नारी , भाग्य बिना नही पाया रे ।।4।।
कँई जनम का पुन्य जुड़ा जब , पाया मानुष काया रे ।
अन्तर्यामी घट–घट बैठा , सबका लैख लिखाया रे ।।
अशोकराम कहे रे मनवा , अमोलक रतन गंवाया रे ।।5।।




(99) भजन

घट–घट मे बोले राम , याँने भजले आठों याम ।
भीतर है साँची धाम , तू जाण गुरू से नाम ।।टेर।।
तीरथ का छोड़ विचार  ,हो जा गुरू चरण की लार ।
तू बाहर मती निहार , थारे भीतर चारूं धाम ।।1।।
अड़सठ तीरथ काया मांही , तू न्हाले झकोला खाई ।
मिलासी त्रिलोकी का सांई , वो ही है साँचा राम ।।2।।
गुरूजी सत्य सार बतावे , आनन्द की लहराँ आवे ।
तेरा सारा ही भरम मिटावे , देवे छै आतम ज्ञान ।।3।।
ज्याँका भाग पूरबला जाग्या , वाँका औगण दूरां भाग्या ।
अशोकराम गुरू चरणां में ,पाग्या मुक्ति धाम  ।।4।।




(100) भजन

तेरे इश्क में मैं भगवन , घरबार छोड़ आया ।
पाया है प्रेम तुमसे , मेरे दिल को तू ही भाया ।।टेर।।
देखा है जब से तुमको , मेरे दिल में तू ही है ।
रूकती न अश्रु धारा , कारण न मुझको पाया ।।1।।
पाया है मुश्किलों से , अब छोडू ना दुबारा ।
था मुद्दतों का रिश्ता , ये बैरी जग भुलाया ।।2।।
जंजीर तोड़ डाली , बन्धन से मुक्त हूँ मैं ।
निज नूर है ये तेरा , उसमें ही मैं समाया  ।।3।।
कोई न आशा मेरी , इस झूँठे जग के माही ।
अशोकराम इश्क सच्चा , दीवाना तेरा पाया ।।4।।





(101) भजन

सखी तेरा पीव बसे घट माँही ने , बाहर क्यूं ढूँढ रही है ।।टेर।।
गगन मण्डल में सेज बिछा है , वहाँ पर तेरा महल सजा है ।
कर दर्शन दीदार पीव का , क्या हिया की फूट रही ।।1।।
अमृत का बादल गरजे है , गरज करे बिजली चमके है।
होत अनन्त प्रकाश पीव का , किसको ढूँढ रही है ।।2।।
परम मनोहर तेज पिया को , कष्ट मैट ले थारा हिया को ।
निरख परख थारा सूरत पियाकी , किससे बूझ रही है ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरू समझावे , सदा पीव का ध्यान करावे ।
अशोकराम सोहं गढ़ मांही , अनहद धुन गूंज रही है ।।4।।






(102) भजन

(श्री जगदीशराम कृत दो भजन , ग्राम–झिलाय)
भक्तों के संग  गुरूवर , आना पड़ेगा ।
दर्शन देकर , जाना पड़ेगा ।।टेर।।
भूल जाऊ मार्ग तो , दिखना पड़ेगा ।
सत्य ज्ञान कर्म मुझे , बताना पड़ेगा ।।1।।
अगर प्रेम सच्चा है , तो मानना पड़ेगा ।
अगर कोई सोया है , तो जगाना पड़ेगा ।।2।।
भव सिन्धु धारा से , तारना पड़ेगा ।
सर्व काज आपको ही , सारना पड़ेगा ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूदेव जी , ज्योति जलाना पड़ेगा ।
जगदीशराम दास को , उबारना पड़ेगा ।।4।।




(103) भजन
गुरू के वचन धारकर , कर जीवन सफल ।
जनम सुधर जायेगा , हो जायेगी फजल ।।टेर।।
सतगुरू के वचन में , सतगुरू की शरण में ।
जिसका दिल लगा है , बस हो गया सफल ।।1।।
गुरू जो वचन कहे , उसमें ही मस्त रहें ।
इतना जो कहा मानले , बस हो गया सफल ।।2।।
सतगुरू है , ब्रह्मज्ञानी , बोलते हैं अमृत वाणी ।
जो चरण की शरण में , बस हो गया सफल ।।3।।
महिमा गुरू की जानो , वांको पूरण ब्रह्म मानो ।
सच्चे दर्शन पाइले , बस हो गया सफल ।।4।।
ज्ञानस्वरूप जी सतगुरू देवा , नित उठ करता हूँ सेवा ।
जगदीशराम जन्म तेरा , बस हो गया सफल ।।5।।




(104) भजन

(श्री प्रेमरामजी महाराज कृत बाणियाँ , ग्राम–बनेठा)
सतगुरू मेरो जनम सुधारो ।
आप देव और मैं हूँ पुजारी , सेवक जाण उबारो ।।टेर।।
लख चौरासी जीवा जूण में , भटक–भटक मैं हारो ।
मानुष जनम सुधारो दाता , शरणूं लियो तिहारो ।।1।।
आप समा दूजो नही दीखे , जग में तारण हारो ।
त्रिविध ताप पाप सब मेटो , मेटो संकट सारो ।।2।।
अमृत सागर आप कहाओ , एक बूंद मुख डारो ।
विनती करूँ कर जोड़ गुंसइयां , देवो चरण आधारो ।।3।।
ज्ञानस्वरूप जी सतगुरू दाता , घट में करो उजियारो ।
प्रेमराम शरणागत थांकी , रखियो ध्यान हमारो ।।4।।




(105) भजन

साधो भाई करूं सतगुरू की आशा ।
झूंठा जाल मिटाया मेरा , रहूँ चरण के पासा ।।टेर।।
गुरू नाम की माला फैरूं , जब लग घट में श्वांसा ।
तन मन धन मैं भेट चढ़ाया , रखूं सदा विश्वासा ।।1।।
ज्ञान का भाण उगाया घट में , घोर हुया प्रकाशा ।
सोहं सुमरण धार निरंन्तर , सुमरूं श्वांस उश्वांसा ।।2।।
करम भरम का जाल हटाया , ये है खेल तमाशा ।
आतम रूप शब्द संग निरख्या , कदै न होवे नाशा ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , मेटया भव की त्रासा ।
प्रेमराम शरण सतगुरू की , रहूँ चरण को दासा ।।4।।




(106) भजन

 साधो भाई चेतन का विस्तारा ।
सब जड़ जगत का विभु में चेतन , जाने गुरू मुख प्यारा ।।टेर।।
ज्यूं आकाश सकल में व्यापक , घट घट में इकसारा ।
ऐसे ही चेतन परिपूरण , रूप बरण से न्यारा ।।1।।
सब में एक , एक में सब है , एको ब्रह्म विचारा ।
कंचन एक आभूषण नाना , घड़ घड़ दिया सुनारा ।।2।।
चेतन अजर अमर अविनाशी , इनका सकल पसारा ।
तीन काल में रहे एक रस , सर्व गुणों से न्यारा ।।3।।
ज्ञानस्वरूप जी सतगुरू मेरा , मेटया सकल विकारा ।
प्रेमराम अनुभव आनन्द में , सदा रहे मतवारा ।।4।।




(107) भजन

साधो भाई चेतन का उजियारा ।
चेतन सब में चमक रहा है , चन्दा सूरज तारा ।।टेर।।
चेतन शुद्ध प्रकाशी कहिये , नहीं है कोई विकारा ।
इसका खेल खरा कुदरत में , कर देखो निस्तारा ।।1।।
ईश्वर , जीव ,और सब माया , चेतन के आधारा ।
इसकी ज्योति है परिपूर्ण , चौदह लोक पसारा ।।2।।
सत चित्त आनन्द रूप प्रकाशा , करे सदा चमकारा ।
एक अखण्डित सब में व्यापक , मेट दिया अंधियारा ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , दिया शबद टकसारा ।
प्रेमराम मगन हो निरखै , सतगुरू के आधारा ।।4।।




(108) भजन

सब घट आतम सकल पसारा ।
पूरण आप भयो अविनाशी , तीन काल से न्यारा ।।टेर।।
जैसे काष्ठ , काष्ठ में अग्नि , जाने सन्त पियारा ।
ये है अमर कभी नहीं मरता , जनम मरण से न्यारा ।।1।।
अखै स्वरूपी घट घट व्यापक , करता खैल हजारा ।
त्रिगुण का भी स्वामी जाणो , है  सबका करतारा ।।2।।
ज्ञानी , ध्यानी , तपसी , योगी , लेवे सदा सहारा ।
लखण भखण के परे रहत है , जाने नहीं संसारा ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , मेटया भरम हमारा ।
प्रेमराम कहेरे साधो , सो निज रूप हमारा ।।4।।




(109) भजन

साधो भाई ऐसा ज्ञान विचारो ।
लख चौरासी पल में कटज्या , मिलज्या मोक्ष किनारो ।।टेर।।
त्वम पद जीव , तत् पद ईश्वर , असि पद ब्रह्म विचारो ।
आदि अन्त मध्य में वोहि , सब जग को करतारो ।।1।।
निजानन्द चेतन है सदा ही , है सबसे वो न्यारा ।
जल थल नभ में वांकी सत्ता , वो ही रूप हमारो ।।2।।
इस के तुल्य कोई नही है , सब जीवां को सहारो ।
सर्व सुखां को सुख है भारी , वेद पुराण पुकारो ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , सांचो दिया इशारो ।
प्रेमराम भव बन्धन मिटज्या , आतम तत्व विचारो ।।4।।




(110) भजन

साधो भाई सुमरण की गति न्यारी ।
धर विश्वास हिरदा के माँही , राँखो भरोसो भारी ।।टेर।।
श्वांस श्वांस में सुमरण होता , ऐसी जुगत विचारी ।
इक्कीस हजार छः सौ मणियाँ की , माला हमने धारी ।।1।।
रात दिवस फिरती है हरदम , सदा चले इकसारी ।
ऐसा सुमरण दुर्लभ मिलता , लेवो जनम सुधारि ।।2।।
सुमरण बिन बन्धन नही कटता , भोगे कष्ट अपारी ।
सोहं सोहं हंसो हंसो ,  धुनी चले अक्सारी ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , दीना ज्ञान भण्डारी ।
प्रेमराम गुरू चरणा में , बार बार बलिहारी ।।4।।




(111) भजन

साधो भाई ऐसी भक्ति कीज्यो ।
सतगुरू शरण धारकर भारी , अमर पट्टा लिख लीज्यो ।।टेर।।
ज्ञान विवेक वैराग्य धारज्यो , काम क्रोध तज दीज्यो ।
मुमुक्ष बनकर गाढ़ो रीज्यो , विषय राग तज दीज्यो ।।1।।
श्रवण–मनन–निदिध्यासन करज्यो , सत्य नाम रट लीज्यो ।
याँने साध परम पद पाज्यो , सहजा मुक्ति लीज्यो ।।2।।
आठो प्रहर चेतन होकर के , दृढ निश्चय कर लिज्यो ।
असि पद में है तेरा बासा , ये ही धारणा कीज्यो ।।3।।
ज्ञानस्वरूप गुरूजी मिलिया , तन मन धन सब दीज्यो ।
प्रेमराम कहे रे साधो , गुरू बचना में  रीज्यो ।।4।।




** आरती **

आरती गुरू अवतारी की , आरती पर उपकारी की ।।टेर।।
ज्ञान की बहती है गंगा , करो नित ही सब सतसंगा ।
होत है ऋषि मुनि चंगा , मोह माया होती भंगा ।।
बजत मृदंग , शबद के संग , प्रेम बहे रंग ।
संग परम हितकारी की ।।1।।
मेटते भव बन्धन सारा , सर्व भक्तों के आधारा ।
तीनों लोकों में उजियारा , सर्व गुणों के भण्डारा ।।
काटते जाल , मेटते काल , बड़े ही दयाल ।
महिमा बढ़ दातारी की ।।2।।
ब्रह्मा , विष्णु और महेश , नारद शारद मुनिअरू शेष ।
कर–कर साधु का नर भेष , पूजते सतगुरू चरण हमेश ।।
करत है ध्यान , होत कल्याण , मिले भगवान ।
करे मुक्ति दुखियारी की ।।3।।
अखण्डी जले ज्योति ज्वाला , रात दिन फैरू मैं माला ।
काटदो कर्म सभी काळा , शरणै आयो प्रतिपाला ।।
हरो मम द्वन्द, काटदो फंद , करो आनन्द ।
टेर अशोक पुजारी की ।।4।।

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