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हरि जी म्हारी सुणज्यो बैग पुकार (भजन) - HARI JI MHARI SUNJYO BAIG PUKAR

  (29) भजन हरि जी म्हारी सुणज्यो बैग पुकार । जुगां–जुगां से आप प्रगटया , जग के सिरजनहार ।।टेर।। भक्त उबारण ताँई लीना , थे नृसिंह अवतार । खंभ फाड़ प्रहलाद उबारया , हिरणाकुश ने मार ।।1।। हरिश्चन्द्र सतवादी तारया , लिया वचन ने धार । बेच दिया अपना सुत नारी , बिक गया बिच बाजार ।।2।। मीरां बाई को जहर पचाया , हाँथा लिया उबार । नानी बाई को भात भरया थे , जाण्यो सब संसार ।।3।। मैं भी आज शरण में आयो , लियो चरण आधार । ‘ अशोकराम ’  की अरजी सुणज्यो , देवो दुखड़ा टार ।।4।।

मैं तो प्रीत गुरां संग पाली रे (भजन) - MAI TO PREET GURAN SANG PAALI RE

(9)  भजन मैं तो प्रीत गुरां संग पाली रे । कर सोलह सिणगार , आज मिलबा ने चाली रे ।।टेर।। आज म्हारो भाग जाग्यो , दिन भलो उग आयो । सन्मुख जाय मिलूं सतगुरू से , विरह घणो सतायो ।। अब मैं झांकू नही पिछाड़ी रे ..........।।1।। शील ओढणी गुरू गम लहंगो , सत की अंगिया पहरी । अमरयो चुड़लो हांथा पहरयो , नाम की नथड़ी पहरी ।। मैं तो ज्ञान को काजल घाली रे ..........।।2।। शुभ सिन्दूर , चेतन की टींकी , आणन्दी अंगूठी पहरी । सोहं पायल बाज रही , सुमरण की बाली पहरी ।। धीरज हार गला में भारी रे ..........।।3।। रतनी चूंपा , सुमति नेवर , बाजू बन्ध भक्ति का । नेम धर्म की तगड़ी पहरी , मार्ग लिया मुक्ति का ।। मैं तो आरती थाल सजाली रे ..........।।4।। “ ज्ञानस्वरूप ”  गुरूजी का मैं , सन्मुख दर्शन पांवा । “ अशोकराम ”  शरण सतगुरू की  ,  हरष हरष गुण गांवा ।। स्वामी ज्ञान का भण्डारी रे ..........।।5।। 

तेरे नाम का आशिक बन (गजल) - TERE NAAM KA AASHIQ BAN

  (8)   गजल तेरे नाम का आशिक बन  ,  मैं सब कुछ लुटा चुका हूँ । मैं भुला न पाँऊ तुझको  ,  गुरू तेरा हो चुका हूँ ।।टेर।। जागी है ज्योति जब से , तेरे नाम की अन्तर में । प्रेमानन्द जब से छाया , कुर्बान हो चुका हूँ ।।1।। दूजा न भावे कोई  ,  इस जग में सिवा तेरे । टूटे ना डोर अब ये , मैं निश्चय कर चुका हूँ ।।2।। निज प्रेम पाके तेरा , मंजिल मैं अपनी पाया । छोडूं ना अब दुबारा , पहले ही खो चुका हूँ ।।3।। झूंठा है जग का रिश्ता , बन्धन से मुक्त हूँ मैं । ‘ अशोकराम ’  इश्क तेरा , मैं सच्चा पा चुका हूँ ।।4।।

गुरू दाता म्हारी अरजी निभाओ जी (भजन) - GURU DAATA MHARI ARJI NIBHAO JI

  (7)  भजन गुरू दाता म्हारी अरजी निभाओ जी ।।टेर।। मैं तो पंछी फंसिया पिंजरे , म्हाने दीज्यो आई छुड़ाई ।।1।। मैं तो मारगिया रा कांकरा , कोई लीज्यो हांथा उठाई ।।2।। मैं तो टाबरिया गुरू आपरा , कोई लीज्यो गोद उठाई ।।3।। जतन घणा ही कर हारया , कोई दीज्यो ज्ञान बताई ।।4।। “ ज्ञानस्वरूप ”  गुरूदेव जी , “ अशोकराम ”  की करोजी सहाई ।।5।।

कुण्डलियाँ (गुरू आप हो दीप सम) - GURU AAP HO DEEP SAM

  कुण्डलियाँ गुरू आप हो दीप सम , मैं हूँ तिमिर समान । करो तिमिर का नाश प्रभु , मेटो सकल अज्ञान ।। मेटो सकल अज्ञान , ज्ञान का बाण लगाओ । तन मन ने घायल करो , अन्तर ज्योति जगाओ ।। ‘ अशोकराम ’  सब जगत के , तुम पूरण भगवान । गुरू आप हो दीप सम , मैं हूँ तिमिर समान ।।

सतगुरू थांको ही उपकारो (भजन) - SATGURU THANKO HI UPKAARO

(6)  भजन सतगुरू थांको ही उपकारो । त्रिगुण ताप मिटाओ मेरा , घट में करो उजियारो ।।टेर।। असंग जुंगा का सूता जीव ने , बेगा आय सम्भारो । आप दया के सागर स्वामी , मेटो सकल विकारो ।।1।। गहरा जल की गहरी धारा , कैसे पाऊं किनारो । तार सको तो तारो दाता , हेलो सुणो हमारो ।।2।। पाप , ताप , सन्ताप मेट दयो , सकल वासना जारो । सात द्वीप नौ खण्ड़ भवन में , थांको सकल पसारो ।।3।। “ ज्ञानस्वरूप ”  गुरूजी म्हाने , थांको ही आधारो । “ अशोकराम ”  शरण सतगुरू की , जनम सुधारो म्हारो ।।4।।

कुण्डलियाँ (करो बीज का नाश) - KARO BEEJ KA NAASH

कुण्डलियाँ करो बीज का नाश , उगण की आशा नांही । छूट जाई सब फन्द , आपका शरणां माँही ।। शरणां माँही आपके , छूटे काया माया । म्हाँने भरोसो आपको , जम का लगे न दाया ।। ‘ अशोकराम ’  की विनती , राँखो चरणां के मांही । करो बीज का नाश , उगण की आशा नाँही ।। 

राँखज्यो सतगुरू म्हारी लाज (भजन) - RANKHJYO SATGURU MHARI LAAJ

(5)  भजन राँखज्यो सतगुरू म्हारी लाज । घणा देवरा ढोक लिया , सुधरयो नही मेरो काज ।।टेर।। तीरथ बरत घणा ही कीना , नही पायो अन्दाज । उपमा थांकी मैं सुण आयो , छोड़ जगत ने आज ।।1।। शरणै थांकी आयो स्वामी , बैंठू थांकी जहाज । हाथ पकड़ के आप चढ़ाओ , पार उतारो आज ।।2।। ऋषि मुनि और देवी देवता , जाणे नही थांको राज । राजा , प्रजा सब चरणा में , थे सबका सिरताज ।।3।। “ ज्ञानस्वरूप ”  जी सतगुरू म्हारी , अरजी सुणो महाराज । “ अशोकराम ”  पर कृपा करज्यो , सर्व गुणो के ताज ।।4।।

कुण्डलियाँ (आप गुरूजी समद है) - AAP GURUJI SAMAD HAI

  कुण्डलियाँ आप गुरूजी समद है , मैं नदियाँ रो नीर । दौड़ लगाऊँ हर घड़ी , बन्धे न मन को धीर ।। बन्धे न मन को धीर , जब लग आय समाऊं । विरह खुमारी चढ़ रही , निज प्रितम को पाऊं ।। ‘ अशोकराम ’  गुरू नाम पर , हो गया मस्त फकीर । आप गुरूजी समद है , मैं नदियाँ रो नीर ।।

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परम ज्ञान प्रकाश WRITING

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